झारखंड विडंबनाओं का राज्य है. विडंबना है कि यहां के पानी में सबसे ज्यादा आयरन है, लेकिन यहां 15 से 50 साल की 65 फीसदी महिलाएं एनेमिया की शिकार है. विडंबना है कि विश्व के सबसे बड़े कोयले के भंडार में ही बिजली की सबसे ज्यादा कमी है. विडंबना है कि जो धरती दुनिया में खणिज के लिए जानी जाती है, वहां गरीबी है, भुखमरी है. विडंबना है कि पर्यटन की असीम संभावना लिए यह राज्य पलायन का दंश झेल रहा है. दिलचस्प बात है कि ये विडंबनाएं इत्तेफाक नहीं है. यह दरअसल नतीजा है राजनीतिक महत्वकांक्षा की कमी का, जिसकी प्राथमिकता में जनसामान्य का कल्याण नहीं नजर आता.
22 साल पहले जिन उद्देश्यों के साथ झारखंड राज्य की स्थापना हुई थी, उनमें से एक भी पूरा होता नजर नहीं आता. शिक्षा, स्वास्थ्य, इंफ्रास्ट्रक्चर और रोजगार जैसे मूल मुद्दों पर सभी सरकारें विफल रही हैं. इतने सालों में तमाम संभावनाओं के बावजूद इस राज्य के पास एक भी बड़ी उपलब्धि नहीं है. कारणों पर जाने से पहले हमें सिलसिलेवार ढंग से सभी महत्वपूर्ण पहलुओं को आंकड़ों के आधार पर समझने की जरूरत है.
झारखंड की प्रति व्यक्ति आय पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र जैसे राज्यों की आधी है. यहां गरीबी दर 37 प्रतिशत के आसपास है, जबकि देश की गरीबी दर इससे कहीं कम 22 प्रतिशत है. राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों की 41 फीसद आबादी गरीबी रेखा से नीचे हैं. कोरोना काल से पहले तीन सालों में 23 से ज्यादा मौतें भूख की वजह से हो चुकी थीं और यह सब तब है, जब झारखंड के पास प्रगति के लिए तमाम संसाधन उपलब्ध हैं.
दो दशक बाद भी झारखंड के पास रिम्स के अलावा एक भी बड़ा अस्पताल नहीं है. हालांकि, देवघर में एम्स का निर्माण हुआ है, लेकिन वर्तमान में स्थिति यह है कि लगभग सभी जिलों से लोगों को हर छोटी और बड़ी बीमारी के लिए रिम्स ही आना पड़ता है. जिलों में सदर अस्पतालों की स्थिति ऐसी है कि जिनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं बचता, वे ही वहां जाते हैं. तमाम सर्वे में बिहार के साथ झारखंड देश में सबसे खराब स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए जाना जाता है.
दूसरी ओर कनेक्टविटी को छोड़ दें तो, राज्यभर में इंफ्रास्ट्रक्चर के नाम पर कोई नया काम नहीं हुआ है. ना कोई नया शहर विकसित हो सका और ना किसी शहर को और विकसित किया जा सका. राज्य के चार शहरों को उपराजधानी बनाने की बस बात की गई है. कई शहरों में एयरपोर्ट की भी घोषणाएं हो चुकी है, लेकिन उन शहरों की आधारभूत जरूरतें भी पूरी नहीं हो पा रही हैं. नए कॉलेज, संस्थान आदि के निर्माण के संदर्भ में भी राज्य की झोली खाली है.
1907 में टाटा स्टील और 1964 में बोकारो स्टील प्लांट के बाद कोई बड़ा उद्योग राज्य नहीं पहुंचा. पिछली सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद बात सिर्फ एमओयू तक ही रह गई. हां, इस बीच दर्जनों की संख्या में छोटे और माध्यम उद्योग दूसरे राज्य जाते रहे क्योंकि यहां उन्हें बिजली की कमी से जूझना पड़ता था. हालांकि इसके और भी कई कारण रहे हैं. झारखंड स्मॉल स्केल इंडस्ट्रीज एसोसिएशन पिछले कई सालों से सराकर को यह कह रहा है कि राज्य में उद्योग के लिए अनुकूल परिस्थितियां नहीं है. चैंबर ऑफ कॉमर्स प्रेस वार्ता कर कहने को मजबूर है कि उद्योग विभाग उनसे बात नहीं करता. उनकी समस्याएं सुनने को कोई नहीं है. जबकि वर्तमान की हेमंत सरकार ने भी दिल्ली जाकर बड़े उद्योगों को आमंत्रित किया था.
स्कूली शिक्षा तंत्र अपनी दयनीय स्थिति में है. इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट बताती है कि पिछले साल तक राज्य के 95 फीसदी माध्यमिक स्कूलों में प्रिंसिपल ही नहीं थे. आज तक यह स्थिति बरकरार है. अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज ने हाल ही में किए सर्वे में बताया कि कोविड के बाद प्राथमिक स्तर के बच्चे स्कूलों की तरफ नहीं लौट रहे हैं. जो लोग आ रहे हैं, उनके सामने कई चुनौतियां हैं क्योंकि वे दो साल स्कूल नहीं गए हैं और बीच का पूरा पाठ्यक्रम उनसे छूटा हुआ है. कुछ साल पहले राज्य सरकार ने लगभग 4600 स्कूल सिर्फ इसलिए बंद कर दिए थे, क्योंकि उनमें बच्चों की संख्या कम थी. ये स्कूल राज्य के गठन के बाद शुरुआती सालों में खुले थे. जिस समय ये स्कूल बंद हुए, उस समय झारखंड एजुकेशन डेवलपमेंट इंडेक्स में देशभर में सबसे पीछे था. गौर करने वाली बात यह भी है कि 22 सालों में राज्य की आबादी एक करोड़ से ज्यादा बढ़ी है, लेकिन उस अनुपात में स्कूल नहीं खुले. इतने सालों में राज्य को कोई भी बड़ा शैक्षणिक संस्थान भी नहीं मिला.
रोजगार का नाम आते ही जेपीएससी और सचिवालय आदि की परीक्षाएं मुंह चिढ़ाते नजर आती हैं. 20 सालों में सिर्फ 6 जेपीएससी की परीक्षाएं हुईं फिर 2 साल पहले एक साथ चार परीक्षाएं ली गईं. केवल एक परीक्षा को छोड़कर लगभग सभी परीक्षाओं में विवाद हुआ है. नियोजन नीति गले की फांस बन चुकी हैं, परीक्षाएं रद्द हो रही हैं, रिजल्ट को न्यायालय में चुनौती मिल रही है, मेरिट लिस्ट खारिज हो जा रहा है, ऐसा लगता है कि सरकारें कई सालों से युवाओं के साथ खेल कर रही हैं.
रोजगार के साथ दूसरी अहम चीज सामने आती है “पलायन”. झारखंड के लगभग 5 लाख से ज्यादा लोग दूसरे राज्यों में मजदूरी करते हैं. अपने राज्य में अवसर नहीं होने के कारण वे बाहर जाने को मजबूर हैं. पलायन की समस्या से मानव तस्करी जैसे अपराध को भी हवा मिलती है. देश भर में मानव तस्करी के शिकार बच्चों में से 15-18 फीसद झारखंड के होते हैं. भुखमरी में भी झारखंड अन्य राज्यों से आगे है, यहां औसतन हर साल 8 लोगों की मौत भूख से हो जाती है. इनमें से किसी भी क्षेत्र में सराकारों ने काम किया होता तो यह राज्य के लिए बड़ी उपलब्धि होती.
आज से लगभग 150 साल पहले साहित्यकार संजीब चटोपाध्याय पलामू भ्रमण के लिए आए थे. उन्होंने अपनी यात्रा वृत्तांत में यहां मजदूरों और किसानों की स्थिति का जो वर्णन किया था, स्थितां आज भी वैसी ही हैं. आज भी लोग अपनी ही खेत पर मजदूरी कर रहे हैं, आम लोगों की आय को बढ़ाने का कोई तरीका सरकारों के पास नहीं है.
राज्य में बनी तमाम सरकारों की नजर यहां के कोयले पर होती है. यह भी माना जाता है कि कोयले पर ही इस राज्य की अर्थव्यस्था टीकी है, लेकिन कई वरिष्ठ पत्रकारों का यह मानना है कि यह राजनीतिक पार्टियों द्वारा अपने फायदे के लिए सेट किया गया नैरेटिव है. सच्चाई यह है कि झारखंड को कोयले और अन्य खणिज के साथ प्राकृतिक सौंदर्य का वरदान भी मिला है. पत्रकार और साहित्यकार संजय कृष्ण कहते हैं कि यदि झारखंड में पर्यटन पर ध्यान दिया जाए तो यह अकेले इतना राजस्व दे सकता है, जितना सभी विभाग मिलकर देते हैं. राजस्थान और गुजरात के मुकाबले झारखंड में देखने, घूमने लायक जगहों के साथ ऐतिहासिक विरासत कम नहीं है. इसी तरह झारखंड में फिल्म की संभावनाएं भी असीम है. सत्यजीत रे ने अपनी पहली फिल्म पथेर पंचाली की शूटिंग पलामू के जंगल में की थी. पर्यटन और फिल्म बड़े स्तर पर रोजगार सृजन भी करते हैं.
दरअसल, झारखंड में जितने अवसर हैं उस स्तर की जिम्मेवारी की भी जरूरत है. वरना विकास के नाम पर संसाधनों का दोहन चलता रहेगा और कुछ लोगों की तिजोरियां भरती रहेंगी. सभी आधारभूत पहलुओं की कसौटी पर झारखंड आज भी वहीं खड़ा नजर आता है जहां 22 साल पहले था. एक ओर जहां शहर अंधाधुन और बेहतरीन बढ़ते जा रहे हैं. तालाब, डैम, खेत और नदियों की लाशों पर इमारतें खड़ी हो रही है. दूसरी तरफ सरकार की प्राथमिकताओं से दूर गांव खाली हो रहे हैं. इस संतुलन को बरकरार रखना बड़ी चुनौती है.
झारखंड के साथ जिन दो राज्यों का गठन हुआ था, वे तुलनात्मक रूप से काफी आगे हैं. जबकि उनमें से एक छत्तीसगढ़ के साथ लगभग एक समान चुनौतियां थीं. झारखंड ने इतने सालों में नक्सलवाद पर जरूर काबू पाया है, लेकिन इसका श्रेय पूरी तरह सरकारों को नहीं दिया जाना चाहिए. नक्सल आंदोलन अपने कारणों से भी खत्म होने की कगार पर है.
22 सालों में राजनीतिक कसौटी पर भी झारखंड को कुछ हासिल नहीं हो सका. सीएनटी, पत्थलगढ़ी, स्थानीय नीति, पेसा कानून आदि तमाम स्थानीय मुद्दे आज भी गले की फांस बने हुए हैं. पांचवीं अनुसूची को पूर्ण रूप से लागू करने के नाम पर सरकारों के मुंह पर ताला लटका मिलता है. यानी लोगों के जीवन से जुड़े महत्वपूर्ण समस्याओं के समाधान पर इस राज्य की जो स्थिति है, वही स्थिति उन मुद्दों पर भी है जो विशुद्ध रूप से झारखंड के हैं.
झारखंड की उन्नति का वास्तविक पैमाना यहां की अस्मिता के साथ यहां के लोगों की खुशहाल जिंदगी है. और यह तय होता है शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसे मुद्दों से. एक राज्य के तौर पर हम तभी आगे बढ़ सकते हैं, जब सभी वर्ग, समुदाय के लोगों की आधारभूत जरूरतों को पूरा कर सकें. यही किसी भी सरकार का पहला और सबसे बड़ा दायित्व भी है.