Ranchi : जीवन का जो उद्देश्य है। जो लक्ष्य है। उसी को लेकर चलते हुए जो हम ईश्वर को समर्पित करते हुए, जो कर्म करते हैं, तो हमारा जीवन समुद्र के उस बुलबुले की तरह हो जाता हैं, जो समुद्र से निकलता है और समुद्र में ही मिल जाता है। मतलब हम आनन्द से आकर, आनन्द में रहते हुए हम आनन्द में ही मिल जाते हैं और इस दौरान हमें मृत्यु का भय भी नहीं रहता। उक्त बातें आज योगदा सत्संग आश्रम में आयोजित रविवारीय सत्संग को संबोधित करते हुए स्वामी शुद्धानन्द ने योगदा भक्तों से कही।उन्होंने कहा कि मृत्यु के भय पर विजय पाना बहुत ही आसान है। उन्होंने इसके लिए एक उदाहरण दिया कि आप समुद्र के बुलबुले को अपने मन में विजुयलाइज्ड करिये, आप क्या देखते हैं कि उस बुलबुले का निर्माण समुद्र से ही हुआ हैं और फिर वो समुद्र में ही जाकर मिल भी रहा है। उसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति तैत्तरीयोपनिषद् के अनुसार आनन्द से ही आया है, आनन्द में ही उसे रहना है और उसे अंत में आनन्द में ही मिल जाना है।उन्होंने कहा कि अगर हम क्रिया योग की साधना दिन भर में दो बार श्रद्धा और भक्ति के साथ करें तो यह मृत्यु का भय हमेशा के लिए जाता रहेगा। उन्होंने कहा कि एक योगी के लिए मृत्यु एक अवसर के समान है। वो जानता है कि उसे अब वर्तमान जीर्ण-शीर्ण शरीर से मुक्ति मिलने जा रही है, अब नया शरीर उसे प्राप्त होगा, जो ईश्वरीय कार्य के लिए नया अवसर प्रदान करेगा। इसलिए वो मृत्यु से भय नहीं खाता।
उन्होंने कहा कि ईश्वर द्वारा बनायी गई इस माया में तीन गुण हैं, जिसे पार पाना एक सामान्य व्यक्ति के लिए उतना आसान नहीं हैं। उन्होंने कहा कि हम क्रिया योग के माध्यम से तामसिक और राजसी प्रवृत्तियों पर विजय प्राप्त कर सात्विकता की ओर जा सकते हैं, जिससे हमें आंतरिक शांति और आनन्द की प्राप्ति होती है। स्वामी शुद्धानन्द ने कहा कि ईश्वर हमें नाना प्रकार के उपहार देने को तैयार बैठे हैं। लेकिन हमें उन उपहारों को लेने के लिए वैसी योग्यता भी होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि ईश्वर ने हमें कुछ समय के लिए ड्रामा करने के लिए यहां भेजा है। लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना है कि हमें अंत में जाना कहां हैं और किसके पास जाना हैं।
उन्होंने कहा कि जो लोग आत्महत्या करते हैं और समझते है कि उन्होंने शरीर को मारकर विजय प्राप्त कर ली। दरअसल वे भूल जाते हैं कि उससे उनकी समस्याओं से मुक्ति नहीं मिलती। ईश्वर के द्वारा दिया गया यह अनमोल उपहार बेवजह नष्ट या किसी समस्याओं से घबराकर खत्म करने के लिए नहीं बना, बल्कि समस्याओं से संघर्ष करने के लिए बना है, क्योंकि अगर हम इससे भागने की कोशिश करेंगे तो हम चाहकर भी भाग नहीं सकते, क्योंकि वो समस्याएं हमारे ही कर्मफल के प्रतिरुप हैं। उन्हें हमें हर हाल में भुगतना है। उन्होंने कहा कि कोई भी व्यक्ति अगर क्रियायोग के माध्यम से जीवन को संचालित करता हैं तो वह हर समस्याओं पर विजय पाता है, क्योंकि उसके बाद उसका जीवन संतुलित होने लगता है। योग साधना का मतलब भी संतुलित जीवन ही हैं। भय का सर्वथा अभाव, अंतःकरण की निर्मलता, तत्वज्ञान के लिए योग में निष्ठा, सात्विक दान, अपने इन्द्रियों का दमन, ईश्वर, देवता और गुरुजनों की पूजा, अच्छे कर्मों की प्रवृत्ति व स्वाध्याय तथा भगवान नाम और उनके गुणों का कीर्तन, अपने धर्मपालन में आनेवाली कष्ट को सहने करने की शक्ति, इन्द्रियों सहित अं
मन, वचन व शरीर से किसी को भी कष्ट नहीं पहुंचाना, यथार्थ की ओर ध्यान देना, अपना बुरा चाहनेवालों पर भी क्रोध का न होना, कर्मों में भी कर्तापन के घमंड का त्याग, चित्त पर नियंत्रण, किसी की निन्दा नहीं करना, इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी आसक्ति का न होना, लोकाचार और शास्त्र के विरुद्ध आचरण नहीं करना और व्यर्थ आकांक्षाओं का अभाव
तेज, क्षमा, धैर्य, शुद्धि किसी के विरुद्ध शत्रुता का भाव न होना और स्वयं में श्रेष्ठता का अभाव, ये सभी ईश्वरीय संपदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरुषों के लक्षण हैं। उन्होंने यह भी कहा कि हर व्यक्ति को सिर्फ कर्म करना चाहिए, उत्तम कर्म करना चाहिए, कर्म का फल तो मिलना ही है, क्या मिलेगा वो ईश्वर तय करेंगे, इस पर आपका अधिकार भी नहीं हैं और न होना चाहिए।