झारखंड गठन के 23 साल बाद भी आदिवासी सड़कों पर अपनी मांग को लेकर लगातार प्रदर्शन करते रहते हैं. इसके बावजूद उन्हें उनका हक कितना मिला ये शोध का विषय है और आज हम इसी पर बात करेंगे.
झारखंड राज्य गठन के 23 साल बाद आज आदिवासी कहां हैं, उनकी आर्थिक स्थिति कैसी है, समाज में उनकी कितनी पकड़ है, इसके अलावा उनकी राजनीतिक बदलाव की क्षमता कितनी है. लेकिन सब से पहले हम झारखंड राज्य के बारे में समझते है. क्योंकि झारखंड के जनजातियों को समझने के लिए पहले झारखंड को जानना जरूरी है.
झारखंड का इतिहास?
झारखंड भारत के 28वें राज्य के रूप में 15 नवंबर, 2000 को अस्तित्व में आया. साल 2011 के जनगणनानुसार राज्य की आबादी 3,29,66,238 है, जिसमें पुरुषों की संख्या 1,69,31,688 और महिलाओं की जनसंख्या 1,60,34,550 है. इसमें से 75.95 प्रतिशत लोग ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करते हैं. वहीं, 24.05 प्रतिशत लोग शहरी क्षेत्र में निवास करते हैं.
झारखंड में शिक्षा दर (54.13 प्रतिशत ) है. इसमें भी जनजातियों में शिक्षा दर बेहद कम है. झारखंड में कुल 32 जनजातियां पाई जाती है, जो संविधान के अनुच्छेद-342 के अंतर्गत राष्ट्रपति द्वारा अधिसूचित है. वहीं, झारखंड में आदिवासियों की जनसंख्या साल 2011 के जनगणना अनुसार 26.02 प्रतिशत है. 2001 की जनगणना के अनुसार अनुसूचित जनजातियों का मात्र 7.14 प्रतिशत शहरी और शेष 92.86 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है.
भाषा के आधार पर झारखंड के जनजातियों को दो वर्गों में रखा जा सकता है. आस्ट्रिक (मुंडाभाषा) और द्रविडियन, इस में कुडुख (उरांव) और माल्तो (माल पहाड़िया और सौरिया पहाड़िया) भाषाएं आती है. शेष सभी जनजातियों की भाषा को ऑस्ट्रिक भाषा में शामिल किया गया है.
झारखंड के जनजातियों को अलग-अलग नाम से पुकारा जाता है, आदिवासी, आदिमजाति, वनवासी, गिरिजन, अनुसूचित जनजाति जैसे नामों से पुकारा जाता है. हालांकि, आदिवासी सबसे ज्यादा प्रचलित है.
आदिवासी का अर्थ होता है “आदिकाल से रहने वाले लोग.”
वहीं, 32 जनजातियों में से भी आठ को आदिम जनजाति की श्रेणी में रखा गया है. जिसमें, असुर, बिरहोर, कोरवा, बिरजिया, परहिया, माल पहाड़िया और शबर आते हैं. झारखंड में आदिम जनजातियों की कुल आबादी 0.72 प्रतिशत है. दरअसल, ‘अनुसूचित जनजाति’ एक संवैधानिक नाम है लेकिन संविधान में जनजाति शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है.
झारखंड में आदिवासियों की आबादी?
साल 1951, जब देश नया-नया आजाद हुआ था, इस दौरान (अविभाजित बिहार) अदिवासियों की जनसंख्या 36.02 प्रतिशत थी. वहीं, झारखंड राज्य के अलग गठन के बाद साल 2011 में उन की संख्या घटकर 26.02 प्रतिशत हो गई है.
आदिवासी समुदाय की संख्या में कमी का एक मुख्य कारण यह भी है कि वो लोग जहां भी जाते हैं, वहीं पर निवास करते हैं. इसके अलावा आदिवासी समाज के 91.7 प्रतिशत लोग आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करते हैं.
हालांकि, 1961 में आदिवासी समाज की साक्षरता दर महज 8.53 प्रतिशत थी जो साल 2011 में बढ़कर 58.96 प्रतिशत हो गई. आदिवासी समाज में लड़के और लड़कियों में भेदभाव नहीं किया जाता है, शायद इसलिए उस समाज में लिंगानुपात 1003 है, जो आमतौर पर किसी और समाज में देखने को नहीं मिलता है.
दि प्रिंट में छपी खबर के अनुसार साल 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में आदिवासियों की संख्या 10,42,81,034 है. यह देश की कुल आबादी का 8.6 प्रतिशत है. केंद्रीय जनजातीय कार्य मंत्रालय के मुताबिक देश के 30 राज्यों में कुल 705 जनजातियां रहती हैं. साक्षरता दर कम होने की वजह से राज्य और देश में आदिवासी समाज के लोग अधिकारी कम बन पाते हैं.
कितने आदिवासी अधिकारी?
आदिवासी समाज से कितने लोग बढ़कर अच्छी नौकरी कर रहे हैं या कितने अधिकारी बने हैं? आपको एक तथ्य जानकार काफी हैरानी होगी कि 26 जनवरी 1950 में जब हमारे देश में संविधान लागू हुआ था. इसके चार साल बाद तक आदिवासी समाज के किसी भी एक युवा का चयन भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में नहीं हुआ था.
वहीं, साल 2021 में देश में अनुसूचित जाति के 252 आईएएस और 170 आईपीएस अधिकारी थें. वहीं, देश में साल 2015 से 2021 तक देश में आदिवासी समाज से 93 आईएएस और 81 आईपीएस जनजाति समुदाय से चयनित हुए हैं. इसके अलावा आदिवासी समाज के बहुमुखी विकास के लिए अनुसूचित जनजाति आयोग और जनजाति वित्त निगम के गठन की मांग तेजी से चल रही है. ये डेटा लगातार मीडिया के द्वारा प्रकाशित की गई है.
जनजातीय समुदाय से कम अधिकारी होने की वजह से आदिवासी खुद को अधिकारियों के साथ जोड़ नहीं पाते और सरकारी योजनाओं का लाभ अच्छे से नहीं उठा पाते हैं और इसी वजह से आदिवासी समाज व्यवसाय में नहीं जा पाते.
व्यवसाय में आदिवासी कहां?
झारखंड राज्य गठन के बाद आदिवासियों में साक्षरता दर बढ़ी और इसी के साथ उनकी आर्थिक स्थिति में भी थोड़ा बदलाव आना शुरू हुआ. जहां पहले ये समाज कृषि और मजदूरी कर अपना भरण-पोषण करते थे. वहीं, अब वो दूसरों को काम और नौकरी दे रहे हैं.
जो आदिवासी समाज की महिलाएं पहले महुआ से दारू बनाकर बेचती थी, वो अब दवाइयां, आचार और मिठाइयां बनाकर बेच रही हैं और खुद को समृद्ध बना रही हैं. लेकिन एक सवाल जो आज भी सोचने पर मजबूर करती है वो ये कि आखिर झारखंड का अदिवासी समाज किसी बड़े व्यवसाय की ओर क्यों नहीं जा सका.
इस पर झारखंड चेंबर ऑफ कॉमर्स के सेक्रेटरी डॉक्टर अभिषेक कहते हैं कि चेंबर में कुल 84 अफिलियेटेड बॉडी हैं. इसमें आलू, प्याज विक्रेता, कपड़ा उद्योग हो गया, तेल उद्योग, कंप्यूटर बेचने वाले सभी आते हैं. चेंबर में कुल 27 इलेक्टेड सदस्य हैं, जिसमें से 21 एग्जिक्यूटिव हैं. चेंबर के चुनाव में मात्र एक आदिवासी व्यक्ति संतोष उरांव खड़े हुए थे, जो चुनाव हार गए. ऐसे में फिलहाल चेंबर में एक भी व्यक्ति आदिवासी समाज से नहीं है.
चेंबर चुनाव हारे, संतोष उरांव कहते हैं कि आदिवासी समाज के लोगों को शुरू से ही परिवार की तरफ से खेती-बाड़ी में लगा दिया जाता है. इसलिए वो व्यवसाय की ओर नहीं जा पाते हैं. इसके अलावा उन्होंने कहा कि आदिवासी को व्यवसाय करने के लिए बैंक भी सहयोग करता है. उन्हें लोन बहुत मुश्किल से मिलता है. इसके अलावा आदिवासी समाज के लोगों को व्यवसायी वर्ग से भी नहीं के बराबर सहयोग मिलता है. यही वजह है कि आदिवासी समाज के लोग व्यवसाय में ज्यादा नहीं आ पाते और दूसरों की जगह तिहाड़ी पर मजदूरी करने को मजबूर हैं. इसी वजह से भूख से मौत के मामले में आदिवासी समाज के लोग ज्यादा आते हैं.
भूख से मौत में कितने आदिवासी?
साल 2022 के ग्लोबल हंगर इंडेक्स रिपोर्ट में 121 देशों की लिस्ट में भारत को 107वां स्थान मिला था. साल 2015 में इस लिस्ट में भारत की रैंक 93 थी. वहीं, मीडिया रिपोर्ट के अनुसार साल 2015 से 2020 के दौरान 13 राज्यों में कुल 108 मौतें भूख से हुई. मरने वालों में आदिवासी से लेकर सामान्य वर्ग के लोग शामिल थे.
राज्य के हिसाब से मौतों का आकड़ा निकाले तो इस लिस्ट में झारखंड 29 मौतों के साथ टॉप पर है. दूसरे नंबर पर उत्तर प्रदेश 22 मौत और तीसरे स्थान पर ओडिशा जहां 15 मौतें हुई. साल 2018 में झारखंड के दुमका में भूखमरी से कलेश्वर सोरेन की मौत होती है. दरअसल, उनका राशन कार्ड आधार से लिंक नहीं था इसलिए उन्हें राशन नहीं मिल पाया था. और इसी वजह से उनकी मौत हो गई थी.
इसके अलावा झारखंड में 2017 से लेकर 2018 तक 17 मौतें भूख से हुई. मृतक में से आठ आदिवासी समाज से थे, पांच पिछड़ी जाति और बाकी बचे चार दलित समाज से थे. इस विषय के जानकारों की मानें तो ये आकड़ें इसलिए सामने आ पाए क्योंकि इस मुद्दों को वहां के स्थानीय मीडिया ने उठाया या स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इसे उजागर किया. राज्य की असली स्थिति इससे कहीं भयावह है.
स्वास्थ्य तक आदिवासियों की पहुंच कितनी?
झारखंड की लगभग आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है. वैसे ही ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाएं का फीलचर है. साल 2022 में सिमडेगा जिले से एक मामला सामने आया था. 19 अक्टूबर, 2022 को जिले के कोलेबिरा प्रखंड के बरसलोया पंचायत बरटोली गांव के मरीज तारा देवी की स्थिति आधी रात को ज्यादा खराब हो गई. पुल नहीं होने की वजह से उसे समुदायिक स्वास्थ्य केंद्र लाने के लिए कुर्सी का सहारा लेना पड़ा था. काफी मशक्कत के बाद मरीज को कोलेबिरा सीएचसी में भर्ती करवाया गया. बता दें कि सिमडेगा जिले में आदिवासियों की जनसंख्या 70.8 प्रतिशत है.
वहीं, केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा जब 19 मार्च, 2023 को सांसद जन पंचायत के तहत सिमडेगा के कोलेबिरा गांव पहुंचे तब लोगों ने पुल की मांग को लेकर मंत्री को सौंपा. इसके अलावा सिमडेगा जिले में कुलदस प्रखंड है लेकिन अभी तक तीन प्रखंड (पाकरटाड़, बांसजोर, केरसई) में सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं बना है. इसके अलावा जिन सात प्रखंड़ों में स्वास्थ्य केंद्र है वहां के एक प्रखंड बोलबा में एक भी डॉक्टर नहीं हैं.
सिमडेगा विधायक भूषण बाड़ा ने विधानसभा सत्र के दौरान पाकरटाड़ में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र का निर्माण कराने की मांग की थी. उन्होंने कहा था कि पाकरटाड़ को प्रखंड बने 18 साल हो गए लेकिन वहां अभी तक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं बना है. विधायक ने सदन में कहा कि अस्पताल नहीं होने की वजह से सड़क दुर्घटना या सांप काटने वाले लोगों की समय पर इलाज नहीं मिलने से मौत हो जाती है.
इसके अलावा गिरिडीह जिले से एक खबर साल 2021 में सामने आई थी. बीबीसी में छपी एक खबर के अनुसार, सात किलोमीटर दूर अस्पताल होने की वजह से खाट पर कराहती सुरजी मरांडी (23 वर्ष) की मौत हो जाती है. दरअसल, प्रसव पीड़ा से कराहती सुरजी मरांडी को सात किलोमीटर खाट पर लेटाकर स्वास्थ्य केंद्र ले जाने की कोशिश कर रहे थें. खाट से ले जाने के क्रम में सुरजी ने रास्ते में बच्चे को जन्म दिया लेकिन वो मर गई.
इसके बाद रिश्तेदार जल्दी-जल्दी अस्पताल पहुंचे लेकिन वहां डॉक्टर के नहीं होने की वजह से सुरजी की ही मौत हो गई. सुरजी गिरिडीह जिले के तीसरी प्रखंड के बरदौनी गांव के लक्ष्मीबथान टोला की रहने वाली थीं. वहां से तीसरी ब्लॉक स्थित स्वास्थ्य केंद्र की दूरी 23 किलोमीटर थी. इसलिए रिश्तेदार सात किलोमीटर दूर के गावां ब्लॉक के स्वास्थ्य केंद्र की ओर पैदल चल दिए थे.
वहीं, झारखंड सरकार में स्वास्थ्य विभाग के 73 प्रतिशत पद खाली हैं. टोटल पोस्ट- 41956, कर्मचारी- 11365, खाली- 30591. ऐसे में आप समझ सकते हैं, राज्य में स्वास्थ्य सुविधाओं का हाल क्या होगा. उसमें भी आदिवासी की पहुंच अस्पतालों तक कितनी होगी?
राज्य के अस्पतालों का अंदाजा आप इस बाद से लगा सकते हैं कि बोकारो जिले में 120 करोड़ और कोडरमा जिले में 112 करोड़ की लागत से अस्पतालों के लिए भवन बनाए गए, जिसमें फिलहाल ताला लगा हुआ है.
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार राज्य सरकार की ओर से 15 जिलों में 534.11 करोड़ के लागत से 178 भवन बनाए गए, जिसमें से लगभग 100 भवन अस्पताल के लिए बनाए गए थे. लेकिन इन भवन में फिलहाल ताला लटका हुआ है.
कई अस्पताल में डॉक्टर नहीं हैं तो कई भवन खंडहर में तब्दील हो गए हैं. इन्हीं सब चीजों का फायदा उठाकर आदिवासी समाज के लोगों का धर्मांतरण किया जाता है.
आदिवासियों का धर्मांतरण?
साल 2021 में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में एक कांफ्रेंस के दौरान झारखंड के सीएम हेमंत सोरेन ने कहा था कि ‘आदिवासी कभी भी हिन्दू नहीं थे, ना हैं. इसमें कोई कंफ्यूजन नहीं है. आदिवासी समाज का हिन्दूओं से सबकुछ अलग है.’
वहीं, युवा सोशल एक्टिविस्ट अनिल पन्ना कहते हैं कि हड़प्पा कल्चर के बाद वैदिक काल आता है, वैदिक काल के दौरान समाज वर्ण व्यवस्था पर आधारित और जनजातीय समाज था. वहीं, पन्ना आदिवासी को हिन्दू बताने वाले से सवाल करते है कि यदि आदिवासी हिन्दू हैं तो वो किस वर्ण व्यवस्था में आते हैं? क्या आदिवासी ब्राहमण है, क्षत्रीय है, वैश्य है या शुद्र है, इसे हिन्दू प्रभाषित करे. जब आदिवासियों को हिन्दू परंपरा के किसी वर्ण व्यवस्था में नहीं रखा गया है तो फिर साफ है कि आदिवासी हिन्दू नहीं है. जनजातीय समाज का जन्म से मरण तक का जो व्यवस्था है वो वर्ण व्यवस्था में नहीं चलता है.
गोड्डा कॉलेज गोड्डा की असिस्टेंट प्रोफेसर रजनी मुर्मू कहती हैं कि आदिवासियों में शिक्षा, स्वास्थ्य की कमी थी. इसके अलावा अंधविश्वास का फायदा उठा कर ईसाई मिशनरी ने आदिवासी को अपने ओर किया. उन्होंने आदिवासी समाज को स्वास्थ्य, शिक्षा और पैसे का लालच देकर धर्म परिवर्तन किया.
इसके अलावा वो कहती हैं कि ईसाई जब आदिवासियों को अपनी ओर कर रहे थे तब आरएसएस ने भी आदिवासियों को अपनी ओर खींचना शुरू किया और उन्हें हिंदू कार्यक्रमों में बुलाना शुरू किया. आदिवासियों को महसूस कराया गया कि आप भी बिल्कुल हिंदू की तरह ही हैं. इस तरह आदिवासियों का भगवाकरण हुआ.
वहीं, आरटीआई के अनुसार झारखंड में 86 लाख से अधिक आदिवासी समुदाय के लोग हैं. इसमें सरना धर्म मानने वालों की संख्या 40,12,622 है. वहीं 32,45,856 आदिवासी हिन्दू धर्म मानते हैं. ईसाई धर्म मानने वालों की संख्या 13,38,175 है. इसी तरह से मुस्लिम 18,107, बौद्ध 2,946, सिख 984, जैन 381 आदिवासी इन धर्मों को मानने वाले हैं. वहीं 25,971 आदिवासी ऐसे हैं जो किसी भी धर्म को नहीं मानते हैं. झारखंड की सत्ता पर आदिवासियों की पकड़ होने के बावजूद धर्मांतरण का मामला रुकने का नाम नहीं ले रहा है.
सत्ता में आदिवासियों की भागीदारी?
झारखंड की सत्ता में आदिवासियों की भारीदारी को समझने से पहले, आपको ये समझने की जरूरत है कि राज्य के कितने विधानसभा सीट और लोकसभा सीट रिजर्व हैं. विधानसभा सीटों की बात करें तो राज्य के कुल 81 विधानसभा सीट में से एससी के लिए 9 सीट रिजर्व है. वहीं, 28 सीट एसटी के लिए रिजर्व है.
वहीं, लोकसभा सीटों की बात करें तो राज्य में कुल 14 सीटे हैं. जिसमें पांच सीटें (लोहरदगा, खूंटी, सिंहभूम, दुमका, राजमहल) एसटी के लिए और एक सीट (पलामू) एससी के लिए रिजर्व है. ऐसे में आप समझ सकते हैं कि राज्य के सबसे बड़े सदन यानी विधानसभा में आदिवासी नेताओं की पहुंच तो है लेकिन उनके विकास की बातें सदन में कितनी उठती हैं, ये सबसे बड़ा सवाल है.
झारखंड में आदिवासियों की जनसंख्या सबसे ज्यादा खूंटी में 73.3, सिमडेगा 70.8, गुमला 68.9, पश्चिम सिंहभूम में 67.3, लोहरदगा में 56.3, लातेहार 45.5, दुमका 43.2, पाकुड़ 42.1, रांची 35.8, सरायकेला 35.2, जामताड़ा 30.4, पूर्वी सिंहभूम 28.5 प्रतिशत है. ऐसे में जिन जिलों में आदिवासियों की जनसंख्या 40 प्रतिशत या उससे अधिक है. वहां के क्षेत्रों में आदिवासी समाज के लोग किसी को सत्ता में बिठाने से लेकर उन्हें सत्ता से बाहर करने तक का दमखम रखते हैं.
इन विधानसभा सीटों पर आदिवासी तय करते हैं नेता
तोरपा, खूंटी, सिमडेगा, कोलेबिरा, सिसई, गुमला, बिशुनपुर, चाईबासा, मझगांव, जगरनाथपुर, मनोहरपुर, चक्करधरपुर, लोहरदगा, लातेहार, मनिका, दुमका, जामा, जरमुंडी, लिटिपाड़ा और पाकुड़.
पेसा क्या है?
पंचायत एक्सटेंशन टू शेड्यूल्ड एरियाज एक्ट (Panchayat Extension to Scheduled Areas Act), 1986 में पंचायती राज व्यवस्था में अनुसूचित क्षेत्रों का विस्तार करते हुए पेसा कानून की शुरुआत हुई. साधारण भाषा में कहे तो इस एक्ट की तीन मुख्य बातें है- जल, जंगल और जमीन का अधिकार. इस एक्ट के तहत आदिवासी समाज के लोगों को जमीन का अधिकार और उसे और सशक्त करना है.
जब आदिवासियों को जमीन का अधिकार मिलेगा तब समाज खुद आगे बढ़ेगा और सशक्त होगा. इसके जहां ग्राम सभा होगी वहां की पूरी व्यवस्था पंचायती राज से चलेगी.
जनजातीय इलाकों भू-अभिलेख के लिए ग्राम सभा आयोजित किए जाने पर आदिवासियों को उस वित्तीय वर्ष में नक्शा खसरा दिया जाएगा. इसके जरिए आदिसावियों को आसानी से नक्शा मिल सकेगा और दफ्तरों के चक्कर नहीं काटने पड़ेंगे.
इसके अलावा आदिवासी अपनी जमीनों के लैंड यूज को नहीं बदल पाएंगे. अगर वो जमीनों के लैंड यूज को बदलना चाहेंगे तो पहले इसकी जानकारी ग्राम सभा को देनी होगी. वहीं, किसी आदिवासी की जमीन गैर-आदिवासी व्यक्ति के पास चली जाती है तो उसे वापस पाने का अधिकार भी ग्राम सभा के पास होगी. इस एक्ट के तहत ग्राम सभा के अधिकार बढ़ेंगे. हालांकि, झारखंड गठन के 23 साल बाद भी राज्य में पेसा कानून लागू नहीं है.
वरिष्ठ पत्रकार और पेसा ड्राफ्टिंग कमेटी के सदस्य सुधीर पाल कहते हैं,पेसा कानून राज्य में लागू नहीं होने की वजह से 5वीं-अनुसूची वाले गांवों को काफी नुकसान हो रहा है. पेसा कानून ग्राम सभा को सशक्त करने का संवैधानिक अधिकार देता है. इसके अलावा यह कानून ग्राम सभा को जल, जंगल और जमीन का अधिकार देता है.