sunil Verma
रांची: हुल दिवस केवल एक तारीख नहीं, बल्कि एक चेतना है वह चेतना जो हमें अपने इतिहास, अपनी जड़ों और अपने स्वाभिमान की याद दिलाती है। हुल दिवस आदिवासी समाज की उस अदम्य शक्ति और साहस का प्रतीक है, जिसने 1855 में ब्रिटिश हुकूमत और जमींदारी शोषण के खिलाफ संगठित होकर विद्रोह किया। सिद्धू और कान्हू मुर्मू केवल दो नाम नहीं, बल्कि स्वतंत्रता की उस मशाल के प्रथम वाहक थे जिन्होंने हजारों संथाल आदिवासियों को एकजुट कर हुल अर्थात विद्रोह का आह्वान किया। यह संघर्ष केवल राजनीतिक सत्ता के विरुद्ध नहीं था, बल्कि अपनी पहचान, अपने जल,जंगल, जमीन और संस्कृति की रक्षा के लिए किया गया एक विशाल जन आंदोलन था। हुल भारत के स्वतंत्रता संग्राम की पहली संगठित और व्यापक जनक्रांति मानी जाती है, जिसमें लाखों आदिवासी स्त्री-पुरुषों ने हिस्सा लिया और अपनी जान की बाजी लगाई। दुर्भाग्यवश, मुख्यधारा के इतिहास में इस बलिदान को वह स्थान नहीं मिला, जिसके वे हकदार थे। आज जब हम हुल दिवस मना रहे हैं, यह हमारे लिए केवल श्रद्धांजलि का अवसर नहीं है, बल्कि यह आत्ममंथन का भी क्षण है। हमें तय करना होगा कि क्या हम सिद्धू-कान्हू के सपनों का भारत बना पाए हैं क्या आज भी आदिवासी समाज अपने हक, सम्मान और अधिकारों को लेकर संघर्ष नहीं कर रहा है। अबुआ अधिकार मंच का मानना है कि हुल दिवस की भावना को केवल स्मरण तक सीमित नहीं रखा जा सकता। यह एक जीवित आंदोलन है झ्र जो सामाजिक न्याय, समता, और आत्मसम्मान की लड़ाई में आज भी हमें दिशा देता है।
