सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ ने महाराष्ट्र के राज्यपाल पर उठाए सवाल, जानिए क्या है पूरा मामला

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शिवसेना मामले की सुनवाई करते हुए, सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ ने महाराष्ट्र के राज्यपाल द्वारा एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाले गुट के विद्रोह के आधार पर फ्लोर टेस्ट बुलाने के फैसले पर महत्वपूर्ण सवाल उठाए हैं. भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति एमआर शाह, न्यायमूर्ति कृष्ण मुरारी, न्यायमूर्ति हिमा कोहली और न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा की पीठ भारत के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता की दलीलें सुन रही थी, जो महाराष्ट्र के राज्यपाल की ओर से पेश हो रहे थे.

सॉलिसिटर जनरल, तुषार मेहता द्वारा उठाया गया प्राथमिक विवाद यह था कि, “राज्यपाल को प्रदान की गई वस्तुनिष्ठ दस्तावेजों के कारण, जिसमें शिंदे समूह के 34 विधायकों द्वारा एकनाथ शिंदे के नेतृत्व का समर्थन करने वाला प्रस्ताव, 47 विधायकों द्वारा उनके खिलाफ, उद्धव गुट द्वारा दिए जा रहे हिंसक खतरों की धमकी के बारे में पत्र और, विपक्ष के नेता का पत्र थे. इन सब समग्रियो के बाद, राज्यपाल फ्लोर टेस्ट के लिए बुलाने के लिए बाध्य थे.”

एसजी के तर्को पर, सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने पूछा कि “क्या राज्यपाल केवल एक पार्टी में आंतरिक विद्रोह के आधार पर, सदन को, विश्वास मत के लिए बुला सकते हैं? राज्यपाल को इस तथ्य के प्रति समान रूप से जागरूक होना चाहिए कि, इस तरह के, विश्वास मत के लिए उनका आह्वान, एक ऐसी परिस्थिति हो सकती है जो, सरकार को गिरा सकती है? यदि पार्टी के भीतर असहमति है, तो असंतुष्ट आंतरिक तंत्र के माध्यम से नेता को उखाड़ फेंकने की मांग कर सकते हैं. लेकिन क्या वे सरकार बदलना चाह सकते हैं?”

सीजेआई ने आगे कहा, “मिस्टर मेहता, क्या होगा, जब लोग सरकार को धोखे में छोड़ना शुरू कर देंगे तो? राज्यपाल उनका सहयोग करते हुए कह देंगे कि, फ्लोर टेस्ट पर आइए? और आप इसे पवित्रता प्रदान कर रहे हैं? हमारे लोकतंत्र के लिए, यह बहुत ही दुखद दृश्य है. कांग्रेस और राकांपा से, शिवसेना द्वारा हाथ मिलाने के नैतिकता के तर्क का इससे कोई संबंध नहीं है. राज्यपाल को किसी भी ऐसे संदर्भ में प्रवेश नहीं करना चाहिए, जो सरकार के पतन का कारण बनता है.”

तब एसजी मेहता ने कहा कि, “होलोहन बनाम ज़चिल्हू और अन्य के फैसले के अनुसार, एक पार्टी का नेता एक व्यक्ति नहीं होता, लेकिन वह एक विशेष विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता है. इसलिए, जब कोई पार्टी अपने चुनाव पूर्व गठबंधन से टूट जाती है और अपने वैचारिक प्रतिद्वंद्वियों के साथ हाथ मिलाकर सरकार बनाती है, तो पार्टी के भीतर असंतोष की संभावनाएं होती हैं.”

यहां एसजी तुषार मेहता ने, एकनाथ शिंदे के उसी तर्क को रखा कि, शिवसेना ने, अपना हिंदुत्व की विचारधारा छोड़ कर, जब कांग्रेस और एनसीपी से साथ सरकार बना ली तो, यह विद्रोही विधायकों के असंतोष का कारण बना.

इस तर्क के बाद, सीजेआई ने एसजी, तुषार मेहता से सवाल किया कि, “गठबंधन के तीन लंबे वर्षों के बाद वैचारिक मतभेद क्यों पैदा हुए? उन्होंने तीन साल तक साथ-साथ, शिवसेना नेतृत्व (उद्धव ठाकरे) के साथ काम किया, साथ रोटी तोड़ी (अंग्रेजी में break the bread मुहावरे का प्रयोग किया गया है). उन्होंने कांग्रेस और एनसीपी के तीन साल तक बने रहे, साथ-साथ रोटी तोड़ी. तीन साल की खुशहाल शादी के बाद रातों-रात ऐसा क्या हो गया?”

तब एसजी तुषार मेहता ने उत्तर दिया कि, “उक्त प्रश्न का उत्तर देना राज्यपाल का कार्य नहीं था क्योंकि यह राजनीतिक क्षेत्र में आ जाता है.”

तब सीजेआई चंद्रचूड़ ने आगे कहा कि, “राज्यपाल को स्वयं से यह सवाल पूछना चाहिए था.”

उन्होंने टिप्पणी की, “आपको खुद से यह सवाल पूछना होगा. राज्यपाल को खुद से यह सवाल पूछना होगा. आप तीन साल से क्या कर रहे थे? अगर चुनाव होने के एक महीने बाद यह सब हुआ होता और वे अचानक भाजपा को दरकिनार कर कांग्रेस में शामिल हो जाते, तो यह अलग बात है. तीन साल आप सहवास (अंग्रेजी में cohibit शब्द का प्रयोग किया गया है) करते रहे और अचानक, एक दिन 34 लोगों का समूह कहता है कि असंतोष है. आप मंत्री बन गए. कार्यालय के सुख का आनंद ले रहे हैं (अंग्रेजी में spoil the office का प्रयोग किया गया है) और अचानक एक दिन आप कहते हैं कि आप असंतुष्ट हैं?”

हालांकि, एसजी ने प्रस्तुत किया कि, “वह केवल इस मामले में कानून पर बहस करेंगे क्योंकि राज्यपाल राजनीतिक बहस में नहीं खींचे जा सकते हैं.”

मुख्य न्यायाधीश ने इस बात पर भी प्रकाश डाला कि “उनके अनुसार, राज्यपाल ने दो महत्वपूर्ण बातों पर ध्यान नहीं दिया.”

उन्होंने आगे कहा, “एक, जहां तक ​​​​कांग्रेस और एनसीपी का संबंध है, कांग्रेस या एनसीपी में कोई आंतरिक असंतोष नहीं है. कांग्रेस के 44 सदस्य थे और एनसीपी के 53 सदस्य थे. यह 97 का एक ब्लॉक है. 97 अभी भी एक ठोस ब्लॉक बना हुआ है. परेशान करने वाली बात यह है कि शिवसेना के पास 56 में से 34 हैं.”

“दूसरी बात राज्यपाल को ध्यान में रखनी थी कि, इस तिथि के अनुसार, ऐसा कोई सुझाव भी नहीं है कि शिवसेना सरकार बनाने के लिए भाजपा के साथ मिलकर काम करेगी. वह इस बात से बेखबर नहीं हो सकते हैं कि तीन दलीय गठबंधन में, तीन में से एक दल में विरोध हुआ है. अन्य दो गठबंधन में, अडिग हैं. वे किसी भी तरह से सहयोगी नहीं हैं. वे लगभग सत्ता में.”

सीजेआई चंद्रचूड़ ने आगे कहा कि, “विचाराधीन सरकार वैध रूप से बनी थी और चल रही थी. इस प्रकार, राज्यपाल स्वयं को न्यायिक शक्ति नहीं मान सकते थे और वे इस निष्कर्ष पर पहुंच गए कि 34 विधायकों को, विचार से बाहर करना होगा क्योंकि वे दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्य हो गए थे.”

उन्होंने आगे कहा, “राज्यपाल को उन्हें शिवसेना का हिस्सा मानना ​​होगा चाहे उनका आंतरिक मामला कुछ भी हो. वह यह नहीं कह सकते कि, इन 34 विधायकों द्वारा दिया गया पत्र सरकार के विश्वास को हिलाने का एक आधार है. उन्हें इन 34 विधायकों को एक हिस्सा बनाने के रूप में लेना है. और अगर वे शिवसेना विधायक दल का हिस्सा हैं, तो यह कहने का आधार कहां है कि, सदन में विश्वास की स्थिति में बदलाव हुआ है?”

सीजेआई का यह कहना महत्वपूर्ण है कि, शिवसेना विधायक दल में टूट के बावजूद वे शिवसेना विधायक दल के ही मूल सदस्य है और राज्यपाल कैसे यह तय कर सकते हैं कि वे अलग ब्लॉक हैं. यह तो स्पीकर का दायित्व और अधिकार क्षेत्र था, जो यह तय करता.

सीजेआई के अनुसार, “एक पार्टी के भीतर असंतोष और सरकार के बहुमत के खो देने के बीच अंतर था.”

उन्होंने कहा, “एक, अनिवार्य रूप से दूसरे का संकेत नहीं है. इस स्थिति में, राज्यपाल के लिए यह निष्कर्ष निकालने का तथ्यात्मक आधार क्या था कि सरकार बहुमत खो चुकी है?”

यानी असंतोष अपनी जगह था और सरकार का बहुमत खो देने के आरोप का इससे कोई संबंध नहीं है.

इस पर एसजी तुषार मेहता ने दोहराया कि, “यह सुनिश्चित करना राज्यपाल की संवैधानिक जिम्मेदारी है कि, सरकार को सदन का समर्थन प्राप्त हो. इस संबंध में, उन्होंने शिवराज सिंह चौहान बनाम मध्य प्रदेश राज्य के फैसले पर भरोसा किया, जहां सुप्रीम कोर्ट ने तत्कालीन सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी में टूट के बाद फ्लोर टेस्ट के लिए मप्र के राज्यपाल के फैसले को मंजूरी दे दी थी.

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