Eksandeshlive Desk
चतरा : हिन्दी विक्रम संवत कैलेंडर का पौष महीना कृषि प्रधान क्षेत्र के लिए खास अहमियत रखता है। इस माह नई फसल खेत खलिहान से होकर किसानों के घरों तक पहुंचती है। नई फसलों के आगमन की खुशी में पौषालू (पिकनिक) मनाने की परंपरा सदियों से भारतीय संस्कृति का अहम हिस्सा रहा है। पूरे पौष माह जंगलों, पहाड़ों, गुफाओं में स्थित नदी, झरने और जल स्रातों के किनारे लोग पूरे परिवार, दोस्त और अन्य अजीजों के साथ पहुंचकर अनाज की अच्छी उपज की खुशी में जश्न मनाते थे और नाना प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजनों का आनंद उठाते थे, लेकिन अब इसका स्वरूप बदल गया है। पौषालू का बदला हुआ स्वरूप ही पिकनिक है।
अब इसे मनाने के तौर-तरीके भी बदल गये
पश्चिमी संस्कृति का शिकार और चमक-दमक की इस आधुनिक युग में यह पौषालु से पिकनिक में बदल गया है। अब इसे मनाने के तौर-तरीके भी बदल गये हैं। नब्बे के दशक तक फसल की अच्छी उपज की खुशी में खासकर किसान वर्ग के लोग इसे मनाते थे। लोग जंगलों, पहाड़ों के जलस्रोतों पर सपरिवार पहुंचकर सर्वप्रथम वन देवी की पूजा पाठ किया करते थे। विभिन्न प्रकार के पुआ, पकवान आदि स्वादिष्ट व्यंजन बनाकर वनदेवी का भोग लगाया जाता था। फिर सभी इकट्ठे होकर स्वादिष्ट व्यंजनों का आनंद उठाते थे। इस दौरान भजन कीर्तन का दौर भी खूब चलता था, परंतु अब परिदृश्य बदल गया है। लोग इसे नए अंदाज में मनाने लगे हैं। स्वादिष्ट पुआ पकवानों की जगह मांस और मदिरा ने स्थान ले लिया है, जबकि भजन कीर्तन की जगह कान फाड़ू डीजे साउंड और अश्लील गाने बजने लगे हैं। जिस पर युवा वर्ग थिरकते नहीं थकते। कई जगह नए वर्ष का जश्न के बहाने अश्लीलता हावी होती है। यह आने वाले पीढ़ी को बर्बाद कर ही रहा है। गांव समाज को भी शर्मसार कर रहा है।
क्या कहते हैं लोग
चतरा के कर्मकांडी और वास्तु विशेषज्ञ चेतन पांडेय कहते हैं कि पौषालू जिसे अब पिकनिक कहते हैं मनाने का स्वरूप अब बदल चुका है। इस पर भारतीय संस्कृति का ह्रास और पश्चिमी सभ्यता हावी हुई है। पहले यह पर्व भारतीय संस्कृति का एक अंग हुआ करता था। परंतु अब मांस मदिरा और अश्लीलता इस संस्कृति को उबाऊ बना दिया है। पूर्व मुखिया पत्थलगडा के बासुदेव तिवारी ने बताया कि पहले लोग अच्छे फसल की उपज की खुशी में पौषालू मनाते थे। परंतु अब अंग्रेजी के नए वर्ष का जश्न के रूप में इसे मनाया जाने लगा है। पहले पूरे पौष माह में लोग पौषालू मनाते थे। पौषालू के बहाने वन देवी की पूजा होती थी और जंगल, पहाड़ और जल के संरक्षण का लोग संकल्प लेते थे। परंतु परिदृश्य बदल गया है।