राजस्थान में बदलाव जारी रहेगा या फिर टूटेगा रिवाज

360° Ek Sandesh Live Politics States

क्रांति कुमार पाठक

हिमाचल प्रदेश की तरह राजस्थान में भी पिछले तीन दशक से यह रिवायत चली आ रही है कि जनता-जनार्दन हर पांच साल बाद सरकार को बदल देती है। इस तरह यहां की जनता भी पांच साल भाजपा को तो फिर पांच साल कांग्रेस को सत्ता में बिठाने का काम करती आ रही है। इसी रिवाज को देखते हुए भाजपा इस बार मुख्यमंत्री अशोक गहलोत बदलने का दावा कर रहे हैं तो वहीं, कांग्रेस की अशोक गहलोत सरकार ताल ठोक रहे हैं कि उनकी सरकार 156 सीटों के साथ एक बार फिर रिपीट होगी। वहीं दूसरी ओर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की इमेज पर सवार भाजपा थिंक टैंक का दावा है कि भ्रष्टाचार-कुशासन और कांग्रेसियों की आपसी लड़ाई से परेशान राजस्थान की जनता गहलोत सरकार को डिलीट करके एक बार फिर चौतरफा विकास के लिए राज्य की बागडोर भाजपा को सौंपने की तैयारी कर चुकी है। भाजपा ने पार्टी के भीतर किसी भी चुनावी कलह को समाप्त करने के लिए सामूहिक नेतृत्व का मंत्र फूंका है। यानी चुनावी चेहरा, कमल का निशान और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ही रहेंगे। पार्टी की चुनावी व्यूह रचना भी इसी के ईद-गिर्द है। पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव के लिए शंखनाद भले ही कुछ समय पहले हुआ हो, लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का राजस्थान पर विशेष फोकस पिछले एक साल से रहा है। इस अवधि में वे प्रदेश के 11 दौरे कर चुके हैं और अरबों के विकास कार्यों का शिलान्यास और लोकार्पण कर चुके हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने प्रदेश की 200 में से करीब 125 विधानसभाओं के मतदाताओं को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से खुद के साथ जोड़ने का प्रयास किया है। इनमें से सिर्फ 41 सीटें भाजपा ने 2018 के विधानसभा चुनाव में जीती थीं। यानी आधी से ज्यादा वो सीटें हैं, जो अभी दूसरे दलों या निर्दलीयों के खाते में हैं। भाजपा की रणनीति इन्हीं सीटों पर सेंध लगाने और खुद के गढ़ को और मजबूत करने की है। इसी रणनीति के तहत प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हर बार अलग-अलग संभागों में जा रहे हैं, ताकि सभी जिलों में पार्टी मजबूत हो। यही वजह है कि वे मारवाड़ से मेवाड़ तक, आदिवासी अंचल से गुर्जर बहुल विधानसभाओं तक, जाट-राजपूतों से लेकर आस्था केंद्रों तक और राजधानी से मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के गृह जिले तक हुंकार भर चुके हैं। भारतीय चुनाव आयोग द्वारा तिथि बदलने के बाद राजस्थान में अब मतदान 25 नवंबर को होगा और नतीजे 3 दिसंबर को आएंगे। ऐसे में अहम सवाल यह उठ रहा है कि प्रदेश में बदलाव की परम्परा कायम रहेगी या फिर इस बार रिवाज टूटेगा। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने अपनी सरकार को दुबारा सत्ता में वापसी के लिए अपना पूरा प्रशासनिक व राजनीतिक कौशल झोंक रखा है। खासकर इस साल बजट के साथ ही वे चुनावी मोड पर आ गए और जनता के हर वर्ग के लिए कई लोकलुभावन और फ्री योजनाओं की झड़ी लगा दी। उन्होंने महिलाओं, मध्यम वर्ग, किसानों, व्यापारियों और जातिगत वोट बैंक को साधने की खूब कोशिश की है। हां, युवा वर्ग जरूर रोजगार और नौकरी न मिलने से, पेपर लीक माफिया के हावी होने से सरकार से नाराज है। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या कांग्रेस हिमाचल प्रदेश व कर्नाटक में मिली चुनावी सफलता का सिलसिला यहां भी बरकरार रख पाती है?
इस बीच राजस्थान के चुनावों में भ्रष्टाचार और लाल डायरी के बाद ईडी ने भी एंट्री मार ली है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से लेकर भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा तक लाल डायरी को मुद्दा बना रहे हैं। इसके साथ ही राजस्थान की चारों दिशाओं में चार परिवर्तन यात्राओं में सामूहिक नेतृत्व का मंत्र फूंकने की रणनीति नजर भी आई। राज्य के बजाय केंद्रीय नेताओं ने इन यात्राओं का आगाज किया और समापन पर खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जयपुर आकर कांग्रेस को ललकारा। वहीं दूसरी ओर कांग्रेस ने चुनाव से ऐन पहले ईडी के छापों को राजनीतिक मुद्दा बनाया है। कांग्रेस का कहना है कि भाजपा दबाव बनाने की राजनीति कर रही है। बता दें कि ईडी ने हाल ही में पेपर लीक मामले में कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा के कई ठिकानों पर छापे मारे हैं। इतना ही नहीं, मुख्यमंत्री गहलोत के पुत्र और राजस्थान क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष वैभव गहलोत भी ईडी के रडार पर हैं। ईडी ने उन्हें विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम (फेमा) के तहत समन भेजकर दिल्ली तलब किया है।
‌ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के काम और नाम भाजपा की सबसे बड़ी ताकत हैं और कांग्रेस इस ताकत का तोड़ जातीय सर्वेक्षण और ओबीसी आरक्षण में देख रही है। कांग्रेस कार्यसमिति की हैदराबाद बैठक में पारित प्रस्तावों से यह साफ हो गया था कि अब पार्टी की चुनावी रणनीति के यह दो अहम हथियार होंगे। महिलाओं के लिए विधायिका में आरक्षण को तत्काल लागू करने और ओबीसी आरक्षण को बढ़ाने यानी जिसकी जितनी आबादी, उसको उतना हक वाली थीम पर चलते हुए कांग्रेस मोर्चाबंद हो रही है। राजस्थान में जातिगत सर्वे के साथ ही कांग्रेस पूर्वी राजस्थान नहर परियोजना (ईआरसीपी) को चुनावी मोर्चे पर ले आई है और वह इसके सहारे वोटों की फसल काटना चाहती है। 13 जिलों की करीब 85 सीटों को प्रभावित करने वाली ईआरसीपी को केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय परियोजना में शामिल नहीं किया है। कांग्रेस इसी को मुद्दा बनाकर पूर्वी राजस्थान में अपनी व्यूह रचना कर रही है। यह सर्वविदित है कि भाजपा की हाल की चुनावी सफलताओं में ओबीसी मतों की अहम भूमिका रही है। इसका अर्थ यह नहीं है कि ओबीसी में शामिल सभी जातियां भाजपा के समर्थन में खड़ी थीं। लेकिन भाजपा ने राज्यों की सामाजिक संरचना के अनुसार जातीय समीकरण बनाए और वह उनको वोटों में तब्दील करने में कामयाब रही। जैसे उत्तर प्रदेश में भाजपा को पता था कि सर्वाधिक ओबीसी वोट यानी यादव मत उसके पाले में नाममात्र के रहेंगे तो उसने गैर यादव ओबीसी मतों को एकजुट कर समीकरण साधे। लेकिन राजस्थान में तो भाजपा ओबीसी के सबसे बड़े मतदाता समूह को अपने साथ रखकर चलने की कोशिश कर रही है। राजस्थान भाजपा में पूर्व केंद्रीय मंत्री सुभाष महरिया की वापसी और पूर्व सांसद ज्योति मिर्धा और जयपुर की पूर्व मेयर ज्योति खंडेलवाल का पार्टी में आना इसी रणनीति का हिस्सा है। अभी राजनीति के कुछ और बड़े नाम हैं, जिन्हें भाजपा में मिलाने की हरचंद कोशिशें चल रही हैं। राजस्थान सरकार ने जातिगत सर्वेक्षण का आदेश पहले ही जारी कर दिया है। चुनावी मोर्चाबंदी में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का यह बड़ा चुनावी दांव है। राज्य के सबसे बड़े व सबसे समर्थ ओबीसी समाज जाट समाज के सम्मेलन में ओबीसी आरक्षण को बढ़ाने और जातीय जनगणना की मांग प्रमुखता से उठी। इसके अलावा ओबीसी की अन्य जातियां जो आरक्षण का अभी तक समुचित फायदा नहीं उठा सकी हैं, उन्होंने भी अपने-अपने स्तर पर ओबीसी आरक्षण को तार्किक रूप से विभाजित करने की मांग उठाई और अपने लिए राजनीतिक प्रतिनिधित्व की मांग की। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि भ्रष्टाचार और बदहाल कानून व्यवस्था को लेकर गहलोत सरकार को लगातार घेर रही भाजपा इस चुनौती का क्या तोड़ निकालती है।

Spread the love