संपादकीय : नेपाल में ‘राजशाही’ की फिर से वापसी की मांग के मायने

Editorial

Alok ranjan jha Dinkar

Ranchi : क्या नेपाल की जनता का लोकतंत्र से मोह भंग हो गया है? देश में जिस तरह बड़ी संख्या में लोग सड़कों पर उतर कर प्रदर्शन कर रहे हैं और एक बार फिर से ‘राजशाही’ की मांग उठाई जा रही है उससे यह सवाल उठना लाजिमी है। नेपाल में वर्ष 2008 में ‘राजतंत्र’ का अंत हुआ था। लोगों के देशव्यापी प्रदर्शन ने जिस तत्कालीन राजा ज्ञानेंद्र शाह को सिंहासन छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया था उसी के समर्थन में आज आवाज उठना कई सवाल खड़े करता है। ‘वापस आओ राजा देश बचाओ’, ‘हमारे प्यारे राजा अमर रहे’, ‘हम चाहते हैं राजशाही’ जैसे नारे नेपाल की सड़कों पर गूंज रहे हैं। सवाल उठता है कि ऐसा क्या हुआ कि महज 16 साल पहले देश में स्थापित हुए लोकतंत्र से लोग इतने नाराज हो गए कि वे ‘राजशाही’ की वापसी के लिए हिंसा करने पर भी उतारू हो गए हैं। जानकार कहते हैं कि नेपाल के वर्तमान हालात के लिए मुख्य रूप से ‘राजनीतिक भ्रष्टाचार’ जिम्मेदार है। देश में ‘राजतंत्र’ के खत्म होने के बाद से अब तक 13 सरकारें रह चुकी हैं। राजनीतिक पार्टियां पूरी तरह भ्रष्टाचार में डूबी हुई हैं। इससे देश में राजनीतिक अस्थिरता का माहौल पैदा हो गया है, जिससे लोगों का लोकतंत्र से भरोसा उठ गया है।

उल्लेखनीय है कि नेपाल में शुक्रवार को ‘राजतंत्र’ समर्थकों ने जमकर उत्पात मचाया। काठमांडू में प्रदर्शकारियों ने कई इमारतों में तोड़फोड़ करने के साथ ही उसमें आग लगा दी। एक व्यापारिक परिसर के अलावा शॉपिंग मॉल, एक राजनीतिक दल के मुख्यालय, एक मीडिया हाउस की बिल्डिंग में आगजनी और दर्जनों सवारी वाहनों और निजी घरों में भी आग लगा दी गई। हालात इतने अनियंत्रित हो गए कि पुलिस ने भीड़ को तितर-बितर करने के लिए कई राउंड आंसू गैस के गोले दागने के साथ ही हवाई फायर भी किए। व्यापक हिंसा के बाद जिला प्रशासन ने कई इलाकों में कर्फ्यू लगा दिया है। इस दौरान प्रदर्शनकारियों के पथराव में करीब एक दर्जन पुलिसकर्मी घायल हो गए। इस बीच, सीपीएन-माओवादी केंद्र के नेता एवं पूर्व प्रधानमंत्री पुष्पकमल दहल ‘प्रचंड’ ने राजतंत्रवादी ताकतों को चेतावनी दी। उन्होंने कहा कि वे नेपाली लोगों और राजनीतिक दलों के उदारवादी रवैये को कमजोरी न समझें। उन्होंने पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह को भी सलाह दी कि वे अपनी पिछली गलतियों को न दोहराएं। प्रचंड ने कहा कि ‘राजशाही’ को फिर से स्थापित करना अस्वीकार्य होगा। इसके साथ ही उन्होंने राजशाही विरोधी और लोकतांत्रिक ताकतों से आत्म-आलोचना करने की अपील भी की।

यह सही है कि नेपाल के लोगों ने जिन उम्मीदों के साथ 240 साल पुरानी ‘राजशाही’ को खत्म कर हिंदू राष्ट्र को एक धर्मनिरपेक्ष, संघीय, लोकतांत्रिक गणराज्य में बदला उन पर राजनीतिक दलों ने पानी फेरने का काम किया है, लेकिन इसके बहाने ‘राजशाही’ की वापसी की कोशिश उल्टी दिशा में चलने के समान ही कही जा सकती है। ‘राजशाही’ समर्थकों की मांगें निश्चित रूप से देश को पीछे की ओर ले जाने वाली प्रतीत होती हैं। इसमें नेपाल में 1991 का संविधान फिर से लागू किया जाना भी शामिल है, जिसमें संवैधानिक राजशाही, बहुदलीय व्यवस्था और संसदीय लोकतंत्र को जगह दी गई थी। इसके अलावा नेपाल को पुन: हिंदू राष्ट्र घोषित किए जाने की मांग भी जोर-शोर से उठाई जा रही है। वहीं जिस तरह से राजशाही समर्थकों के प्रदर्शनों के जवाब में लोकतंत्र समर्थक भी सड़क पर उतरने की तैयारी कर रहे हैं उससे दोनों पक्षों के बीच गंभीर टकराव की संभावना से इनकार नहीं किया सकता। ऐसे में आने वाले दिन निश्चित रूप से नेपाल का भविष्य तय करने वाले साबित हो सकते हैं। ऐसे में भारत सरकार को अपने पड़ोसी देश के घटनाक्रम पर करीबी नजर रखने और हालात को सामान्य करने में मदद करने की जरूरत है। नेपाल में गहराता राजनीतिक संकट भारत के भी हित में नहीं है।