संपादकीय : निजी विद्यालयों की मनमानी पर क्यों नहीं लग रही रोक?

Editorial

Alok ranjan jha Dinkar

रांची : निजी विद्यालयों की आसमान छू लेने वाली फीस निश्चित रूप से आम आदमी के लिए गंभीर मुद्दा बन गया है। चिंता की बात है कि सरकारी विद्यालयों की अव्यवस्था और अभिभावकों का एकजुट होकर विरोध न करने की प्रवृत्ति के कारण निजी विद्यालयों की मनमानी बढ़ती जा रही है। अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देना गरीब लोगों का सपना होता है और इसके लिए वे हर कुर्बानी देने के लिए तैयार रहते हैं। यह भी सच है कि सरकार की अनदेखी के कारण सरकारी विद्यालयों के बदहाल होने के कारण गरीब अभिभावक भी निजी विद्यालयों की ओर रुख करने को मजबूर हैं। इसी का फायदा उठाकर प्राइवेट स्कूल संचालक उनका जमकर शोषण कर रहे हैं। इस प्रवृत्ति का मुख्य कारण शिक्षा क्षेत्र में नियमन और निगरानी की कमी है। इसमें कोई शक नहीं कि शिक्षा का बढ़ता व्यावसायीकरण मनमाने ढंग से फीस बढ़ोतरी और अनावश्यक शुल्क वसूलने की संस्कृति को बढ़ावा दे रहा है। राजनीतिक प्रभाव के कारण सरकारी नियमों पर अमल नहीं होता। अभिभावकों के पास विकल्प सीमित होने और कानूनी जागरूकता की कमी के कारण भी निजी विद्यालयों द्वारा की जा रही ”लूट” पर रोक नहीं लग पा रही है। यदि सरकारी स्कूलों की स्थिति ठीक होती और सरकार शिकायत निवारण प्रणाली सुदृढ़ कर अपने नियम लागू कर पाती तो शायद गरीब अभिभावकों की जेब इस तरह ढीली नहीं होती।

उल्लेखनीय है कि झारखंड विधानसभा में सोमवार को प्राइवेट स्कूलों की मनमानी और री-एडमिशन के नाम पर फीस बढ़ोतरी का मामला उठा। सदन में भाजपा की झरिया विधायक रागिनी सिंह ने कहा कि निजी विद्यालयों में री-एडमिशन के नाम पर हर साल 10 से 20 प्रतिशत तक फीस बढ़ा दी जाती है। इतना ही नहीं, किताबों में भी कमीशन वसूलने का काम होता है। स्कूल की ओर से किसी खास दुकान से किताब और ड्रेस खरीदने के लिए कहा जाता है। इस तरह प्राइवेट स्कूल गरीबों का खून चूसने का काम कर रहे हैं। इस पर शिक्षा मंत्री रामदास सोरेन ने बताया कि निजी विद्यालयों की मनमानी रोकने के लिए शुल्क समिति का गठन स्कूल में किया जाता है, जिसमें परिजन के साथ-साथ स्कूल के शिक्षकों को भी रखा जाता है। इसके अलावा जिला में भी कमेटी बनाई जाती है। इसमें उपायुक्त, सांसद और विधायक रहते हैं। कमेटी चाहे तो स्कूल प्रबंधन पर ढाई लाख तक का जुर्माना लगा सकती है। सवाल उठता है कि ये सब होने के बावजूद निजी स्कूलों की मनमानी पर रोक क्यों नहीं लग पा रही है? क्या सरकार की यह जिम्मेदारी नहीं है कि वह ऐसा कोई निगरानी तंत्र बनाए जो यह आंकलन करे कि स्कूल और जिला स्तर पर बनाई गई कमेटी अपना काम सही से कर रही है कि नहीं? सरकार को इस सवाल का भी जवाब देना चाहिए कि क्या कारण है कि वह अपने नियम ही लागू नहीं करा पा रही है?

विडंबना है कि एक तरफ सरकार शिक्षा के स्तर को बढ़ाने तथा हर बच्चे को शिक्षा देने का ढिंढोरा पीटती है, वहीं सरकारी स्कूल बंद किए जा रहे हैं। सरकार एक ओर जहां आरटीई के तहत आर्थिक रूप से कमजोर बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने की बात करती है, वहीं प्राइवेट स्कूलों की मनमानी पर अक्सर मौन रहती है। बेहतर शिक्षा के नाम पर गरीबों को लूटा जा रहा है और शिक्षा विभाग और सरकार इस पर कोई अंकुश नहीं लगा पा रही है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि निजी स्कूल ऐसे बिजनेस बन गए हैं, जिस पर कोई नियम लागू नहीं होता! हैरानी की बात है कि टैक्स में छूट मिलने के बावजूद स्कूल संचालकों द्वारा मनमानी फीस और तरह-तरह के शुल्क वसूले जाते हैं। इनके द्वारा सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइन की पालना भी नहीं की जा रही है। ऐसे में समय आ गया है कि सरकार प्राइवेट स्कूलों की मनमानी पर रोक लगाने के लिए ठोस कदम उठाए। यह सुनिश्चित करे कि कोई निजी विद्यालय न तो फीस में अनाप-शनाप बढ़ोतरी करे और न ही किसी निर्धारित दुकान से किताबें और ड्रेस लेने के लिए मजबूर करे। तरह-तरह के शुल्क के नाम पर की जा रही ”अवैध वसूली” पर भी विराम लगाने का समय आ गया है।

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