संपादकीय : परिसीमन के मुद्दे पर बातचीत से ही निकलेगा सर्वमान्य समाधान

Editorial

Alok ranjan jha Dinkar

रांची : संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन का तमिलनाडु से शुरू हुआ विरोध कई राज्यों तक पहुंच गया है, जो देश की एकता और अखंडता के लिए चिंता की बात है। परिसीमन से जिन-जिन राज्यों का संसद में प्रतिनिधित्व कम होने की संभावना है, उन राज्यों के तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन की लड़ाई में शामिल होने से यह मुद्दा निश्चित रूप से गंभीर हो गया है। इन राज्यों का दावा है कि अगर जनसंख्या के आधार पर लोकसभा सीटों की संख्या निर्धारित की जाएगी तो उन्हें नुकसान उठाना पड़ेगा। हालांकि केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने स्पष्ट किया है कि परिसीमन के बाद आनुपातिक आधार के हिसाब से दक्षिण के एक भी राज्य की एक भी लोकसभा सीट कम नहीं होगी, लेकिन उन्होंने उत्तर भारत के राज्यों को इससे होने वाले संभावित फायदे के बारे में अब तक कुछ नहीं कहा है। ऐसे में जरूरी है कि इस संवेदनशील मामले को लेकर बनी दुविधा की स्थिति समाप्त हो। केंद्र और राज्य दोनों को अल्पकालिक फायदे के लिए देश का दीर्घकालिक नुकसान करने से बचना चाहिए और बातचीत कर इस मुद्दे का कोई सर्वमान्य हल निकालने पर जोर देना चाहिए।

उल्लेखनीय है कि जनसंख्या के आधार पर लोकसभा सीटों के परिसीमन का विरोध करने के लिए तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के नेतृत्व में शनिवार को चेन्नई में एक संयुक्त समिति की बैठक हुई, जिसमें कर्नाटक के उपमुख्यमंत्री डीके शिवकुमार, केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन, तेलंगाना के मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी, पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान, ओडिशा के पूर्व मंत्री संजय कुमार दास आदि ने शिरकत की। बैठक में स्टालिन ने स्पष्ट कहा कि आगामी परिसीमन से हमारी संस्कृति, पहचान और प्रगति खतरे में है। अगर लोकसभा प्रतिनिधियों की संख्या में कमी होती है तो हमारे विचारों को व्यक्त करने की क्षमता कम हो जाएगी। साथ ही हमारे राज्यों को आवश्यक धनराशि प्राप्त करने में संघर्ष करना होगा। वहीं डीके शिवकुमार ने भी कहा कि हम अपने अधिकारों, अस्तित्व और संविधान की रक्षा के लिए लड़ने के लिए एक साथ हैं। उन्होंने कहा कि दक्षिणी राज्य देश के विकास में बहुत योगदान दे रहे हैं। ऐसे में हम अपनी संसदीय सीटों में कमी नहीं आने देंगे। ऐसा नहीं है कि लोकसभा सीटों के परिसीमन को लेकर केवल दक्षिणी राज्य ही चिंता जता रहे हैं। इसमें पंजाब और ओडिशा के अलावा झारखंड भी शामिल है, जहां की विधानसभा में यह मामला उठाया गया। हेमंत सोरेन सरकार के मंत्रियों की ओर से आशंका प्रकट की गई परिसीमन में लोकसभा और विधानसभा में आदिवासी सीटों की संख्या घटाई जा सकती है। बता दें कि अभी राज्य में लोकसभा की पांच और विधानसभा की 28 सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं। इन सीटों पर सत्तारूढ़ झारखंड मुक्ति मोर्चा और कांग्रेस गठबंधन का कब्जा है।

इसमें कोई शक नहीं कि हमारा संवैधानिक लोकतंत्र कहता है कि लोकसभा सीटों का निर्धारण जनसंख्या के आधार पर होना चाहिए, लेकिन हमने जिस संघीय व्यवस्था को अपनाया और उस पर दशकों चलकर अपने देश को आगे बढ़ाया है उसमें जरूरी है कि हर राज्य के साथ बराबरी का व्यवहार किया जाए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत राज्यों का संघ है, जिसमें एक हद से ज्यादा टकराहट देश की एकता और अखंडता को खतरे में डाल सकती है। ऐसे में आवश्यक है कि चुनावी नफा-नुकसान से इतर परिसीमन विवाद का ऐसा कोई समाधान निकाला जाए जो सबको मंजूर हो। अच्छा होगा जैसा कि पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी ने कहा है-हम एक बार पुन: जनसंख्या स्थिरीकरण की दिशा में आगे बढ़ें और जब तक सभी राज्य इसको हासिल नहीं कर लेते परिसीमन न कराएं।

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