Alok ranjan jha Dinkar
Ranchi : केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह का यह कहना विचारणीय है कि हथियार और हिंसा से बदलाव नहीं आ सकता, केवल शांति और विकास से ही बदलाव लाया जा सकता है। निश्चित रूप से किसी भी समस्या का समाधान हिंसा की राह पर चलकर निकाला नहीं जा सकता। ऐसे में केंद्रीय गृहमंत्री की नक्सली गतिविधियों में संलिप्त लोगों से मुख्यधारा में शामिल होने की अपील का स्वागत किया जाना चाहिए। इसमें कोई संदेह नहीं कि पिछले कुछ महीनों के दौरान सुरक्षा बलों ने नक्सलवादी आंदोलन को भारी नुकसान पहुंचाया है और इसके परिणाम स्वरूप नक्सली घटनाओं में उल्लेखनीय कमी आई है, लेकिन इसके साथ-साथ ऐसी हिंसक विचारधारा को काउंटर करने की भी आवश्यकता है। इसके लिए सरकार को विश्वास बहाली और सूचना प्रणाली को और मजबूत करना होगा। इसके साथ ही आवश्यकता इस बात की भी है कि सरकारी नीतियां इस ढंग से बनाई जाएं, जिससे आमजन को लाभ पहुंच सके। गरीबी-अमीरी की खाई को पाटकर नक्सली समस्या का समाधान किया जा सकता है।
हालांकि नक्सलवाद मूल रूप से कानूनी समस्या है या अन्याय, गैरबराबरी एवं शोषण से उत्पन्न लावा है, इसको लेकर विचारकों में मतभेद है। एक वर्ग जहां नक्सलवाद को आतंकवाद जैसी गतिविधियों से जोड़कर इसे देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ी चुनौती मानता है, तो दूसरा वर्ग इसे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक विषमताओं एवं दमन-शोषण की पीड़ा से उपजा एक स्वत: स्फूर्त विद्रोह समझता है। ऐसे में सरकार को इन दोनों पहलुओं में से किसी की अनदेखी किए बिना इस गंभीर समस्या का स्थायी समाधान निकालने पर जोर देना चाहिए। बता दें कि छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले के गोगुंडा की पहाड़ी पर हुई मुठभेड़ में सुरक्षा बलों ने 25 लाख के इनामी जगदीश उर्फ बुधरा सहित 17 नक्सलियों को ढेर कर दिया। इनमें 11 महिला नक्सली भी शामिल हैं। मुठभेड़ में डीआरजी सुकमा के तीन और सीआरपीएफ के एक जवान सहित कुल चार जवानों के घायल होने की भी खबर है। मुठभेड़ स्थल से भारी मात्रा में आधुनिक हथियार और गोला-बारूद भी बरामद हुए हैं। भूमिहीन किसानों एवं उपेक्षित सामाजिक वर्ग के लोगों द्वारा 1967 में आरंभ किए गए नक्सलवादी आंदोलन के खिलाफ सुरक्षा बलों को हाल के महीनों में मिली कामयाबी निस्संदेह बड़ी है, लेकिन जब तक शोषित, पीड़ित, भूमिहीन किसान एवं मजदूर, विस्थापित आदिवासी एवं सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक रूप से पिछड़े लोगों की पीड़ा का अंत नहीं हो जाता है, तब तक इस समस्या का स्थायी समाधान संभव नहीं है।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि नक्सलवाद की समस्या के समाधान के लिए सरकारी स्तर पर वर्षों से प्रयास जारी हैं। इस दौरान अनेक नीतियां बनाई गईं, लेकिन यह भी सत्य है कि उन नीतियों का कार्यान्वयन उचित तरीके से आज तक नहीं हो पाया है। ऐसे में आवश्यकता इस बात की है कि नक्सलवाद के मूल में जाकर समस्या के समाधान के लिए समुचित प्रयास किए जाएं। इस समस्या को पनपने एवं पोषण देने में जिन तत्वों की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, उसमें गरीबी, बेरोजगारी, राजनीतिक एवं प्रशासनिक भ्रष्टाचार, एक वर्ग के समुचित विकास का अभाव, विस्थापन की समस्या आदि प्रमुख कारण शामिल हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि हाल के महीनों एवं वर्षों में नक्सली गतिविधियों में कमी आई है और सरकार के दावे के अनुसार हो सकता है कि एक साल में इस समस्या का अंत भी हो जाए, लेकिन एक विचारधारा के रूप में जब तक यह जीवित रहेगी इसके अलग-अलग रूप चुनौती देते रहेंगे। ऐसे में समय की मांग है कि नक्सलवाद के विचार से प्रभावित और नक्सली गतिविधियों में संलिप्त लोग और शासन-प्रशासन के लोग आमने-सामने बैठकर समस्या का स्थायी समाधान निकालें। गुमराह व्यक्तियों के लिए पुनर्वास की उचित व्यवस्था और भूमि सुधार कार्यक्रम लागू कर सशक्त भारत की परिकल्पना को साकार किया जा सकता है।