संपादकीय : समय के साथ भूलने की प्रवृत्ति रेल हादसों में करा रही बढ़ोतरी

Editorial

Alok ranjan jha Dinkar

Ranchi : सरकार की ओर से भारतीय रेलवे का कायाकल्प किए जाने के दावे के विपरीत धरातल पर बहुत बदलाव नजर नहीं आ रहा है। पिछले कुछ वर्षों से रेल हादसों में हो रही बढ़ोतरी से यही लगाता है कि रेल सुरक्षा को ‘भगवान भरोसे’ छोड़ दिया गया है। विडंबना है कि एक तरफ जहां नई और तमाम सुविधाओं से लैस आधुनिक ट्रेनें चलाने और रेलवे स्टेशनों को विश्वस्तरीय बनाने का ढिंढोरा पीटा जाता है, वहीं ट्रेनों के संचालन और बुनियादी ढांचे के विकास को लेकर लगातार गंभीर सवाल उठ रहे हैं। हैरानी की बात है हर हादसे के बाद सरकार कमियों को दूर करने का आश्वासन तो देती है, लेकिन ट्रेनों के पटरियों से उतरने या आपस में टकराने के खतरे से यात्रियों को मुक्ति नहीं दिला पा रही है। आदर्श स्थिति में किसी भी हादसे से सबक लेकर ऐसे इंतजाम किए जाते हैं ताकि वैसी दुर्घटना दोबारा न हो, लेकिन हमारे देश में लगभग एक ही प्रकृति के हादसों का सिलसिला बना रहता है। सवाल उठता है कि रेलगाड़ियां दुर्घटनाओं का शिकार हो रही हैं तो इसके लिए किसकी जवाबदेही बनती है और उसमें सुधार के लिए ठोस उपाय करने की जिम्मेदारी किसके कंधे पर है।

उल्लेखनीय है कि झारखंड के साहिबगंज में मंगलवार तड़के नेशनल थर्मल पावर कापोर्रेशन की ओर से संचालित दो मालगाड़ियां आपस में टकरा गईं। इस हादसे में दो लोको पायलट की मौत हो गई और चार अन्य घायल हो गए। इस दुर्घटना में फरक्का-ललमटिया एमजीआर रेलवे लाइन पर बरहेट यार्ड के पास पहले से खड़ी मालगाड़ी से कोयला लदी दूसरी मालगाड़ी टकरा गई। इस घटना में फरक्का से आकर बरहेट यार्ड में खड़ी मालगाड़ी के लोको पायलट बोकारो निवासी अंबुज महतो और पश्चिम बंगाल के रिटायर्ड लोको पायलट जीएस मॉल की मौत हो गई। वहीं चार कर्मी जितेंद्र कुमार, उदय मंडल, राम घोष और टीके नाथ घायल हो गए। इससे पहले ओडिशा के कटक जिले में रविवार को एसएमवीटर बेंगलुरु-कामख्या एसी एक्सप्रेस के 11 डिब्बे पटरी से उतर गए। इस हादसे में एक व्यक्ति की मौत हो गई, जबकि अन्य कई लोग घायल हो गए। हर हादसे की तरह इन हादसों के बाद भी जांच और कार्रवाई करने की बातें कहीं गईं, लेकिन सवाल उठता है कि लोग कब इस डर से मुक्त होकर किसी ट्रेन से सफर करेंगे कि वह दुर्घटना का शिकार न हो और वे सुरक्षित अपने गंतव्य तक पहुंच जाएं। हालांकि ऐसी खबरों की कमी नहीं होतीं, जिनमें बताया जाता है कि भारतीय रेलवे जल्द ही अंतरराष्ट्रीय स्तर की सेवा मुहैया कराने वाला है, लेकिन हकीकत यह है कि आए दिन किसी ट्रेन के पटरी से उतरने की खबर आती है तो कभी ट्रेनों के आपस में टकराने की।

यह सही है कि ट्रेनों की रफ्तार और सुविधाओं में लगातार इजाफा हो रहा है, मगर उसी मुताबिक पटरियों की गुणवत्ता और व्यवस्थागत पहलुओं को बेहतर करना जरूरी नहीं समझा जाता। वहीं अगर कोई हादसा हो जाता है तो सिर्फ जांच और कार्रवाई का आश्वासन देकर काम चला लिया जाता है। निश्चित रूप से यह रवैया ही रेलवे की समस्या के समाधान की राह में बड़ी बाधा बन रहा है। आधुनिक शक्ल और महंगे किराए वाली ट्रेनों की आड़ में आए दिन होने वाले छोटे-बड़े हादसों को बीतते समय के साथ भूलने की प्रवृत्ति यात्रियों और कर्मचारियों के जीवन को खतरे में डाल रही है। लोको पायलट की कमी भी रेल हादसे के लिए कहीं न कहीं जिम्मेदार है। भारतीय रेल में बड़ी संख्या में रिक्तियां पड़ी हुई हैं। जाहिर है लचर बुनियादी ढांचे और अतिरिक्त काम के बोझ तले दबे कर्मचारियों के सहारे हादसों पर लगाम लगाने का कोई भी दावा अंतत: खोखला ही साबित होगा।