संपादकीय : तेजी से बदलते फैशन के दौर में बढ़ती ‘टेक्सटाइल वेस्ट’ की चुनौती

Editorial

Alok ranjan jha Dinkar

Ranchi : तेजी से बदलते और बढ़ते फैशन के दौर में ‘टेक्सटाइल वेस्ट’ निस्संदेह बड़ा मुद्दा बन गया है। आज हम पहले से कहीं ज्यादा कपड़े खरीद रहे हैं और उन्हें उतनी ही तेजी से फेंक भी रहे हैं। कीमतों में भारी गिरावट के कारण प्रति व्यक्ति खरीदे जाने वाले कपड़ों की मात्रा में वृद्धि हुई है। इस तरह बहुत तेजी से बहुत सारा कचरा जमा हो रहा है और इसके लिए केवल उपभोक्ता ही जिम्मेदार नहीं है। कंपनियों और दुकानों में भी बिना बिके कपड़े कचरे को बढ़ाते हैं। इस समस्या की गंभीरता का अंदाजा इस आंकड़े से लगाया जा सकता है कि वैश्विक स्तर पर केवल करीब 20 प्रतिशत कपड़ों को ही पुन: उपयोग या रीसाइकिलिंग के लिए एकत्र किया जाता है। यह संख्या निश्चित रूप से बेहतर अपशिष्ट प्रबंधन प्रथाओं और अभिनव समाधानों की तत्काल आवश्यकता की मांग करती है। हालांकि कपड़ों को रीसाइकिल करना इतना आसान नहीं है। रेशे अक्सर इतने छोटे होते हैं कि उनका दोबारा इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। कई कपड़े ऐसी सामग्रियों के मिश्रण से बने होते हैं, जिन्हें अलग करना मुश्किल होता है। इसके साथ ही रीसाइकिलिंग प्रक्रियाएं महंगी हो सकती हैं, जो कभी-कभी पर्यावरण के अनुकूल नहीं होती हैं।

उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रविवार को अपने मासिक रेडियो कार्यक्रम ‘मन की बात’ में बढ़ते ‘टेक्सटाइल कचरे’ का उल्लेख किया और कहा कि इससे निपटने के लिए कई नवाचारी प्रयास हो रहे हैं। इसमें रीसाइकिलिंग और सर्कुलर इकोनामिक जैसी पहल शामिल है। उन्होंने कहा कि आजकल दुनिया भर में पुराने कपड़ों को हटाकर नए कपड़े पहनने का चलन बढ़ गया है। इन पुराने कपड़ों में से बहुत कम मात्रा में ही रीसाइकिल किए जाते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि भारत दुनिया का तीसरा ऐसा देश है, जहां सबसे ज्यादा ‘टेक्सटाइल कचरा’ निकलता है। यानी हमारे सामने चुनौती भी बहुत बड़ी है, लेकिन खुशी की बात है कि हमारे देश में इस चुनौती से निपटने के लिए कई सराहनीय प्रयास किए जा रहे हैं। कई भारतीय स्टार्टअप ने टेक्सटाइल रिकवरी फेसेलिटी पर काम शुरू किया है। कई ऐसी टीमें हैं, जो कचरा बीनने वालों के सशक्तिकरण के लिए भी काम कर रही हैं। अच्छी बात है कि कई युवा टिकाऊ फैशन के प्रयासों में शामिल हो रहे हैं और पुराने कपड़े-फुटवियर को रीसाइकिल कर जरूरतमंदों को देते हैं। इसके साथ ही कई संगठन ‘परिपत्र फैशन ब्रांड्स’ को बढ़ावा दे रहे हैं। कुछ प्लेटफॉर्म पर कपड़े किराए पर भी दिए जा रहे हैं।

यह सही है कि ‘टेक्सटाइल कचरे’ की समस्या से निपटना चुनौतीपूर्ण है, लेकिन बहुत सारी नवोन्मेषी कंपनियां उम्मीद जगाती हैं और इस आपदा को अवसर में बदल कर अब रीसाइकिल किए गए धागों, नए रेशों या यहां तक कि मछली पकड़ने के जाल और प्लास्टिक की बोतलों जैसे अपशिष्ट पदार्थों से कपड़े बना रही हैं। इससे न केवल कचरे को कम करने में मदद मिलती है, बल्कि फैशन डिजाइन में रचानात्मकता भी बढ़ती है। ‘कपड़ा कचरे’ के प्रबंधन में नए-नए तरीके अपना रहे पानीपत, तिरुपुर और बेंगलुरु जैसे शहरों से अन्य नगरों को भी प्रेरणा लेनी चाहिए। निश्चित तौर पर यह हमारे देश के लिए गौरव की बात है कि पानीपत अब टेक्सटाइल रीसाइकिलिंग का एक वैश्विक हब बन रहा है और बेंगलुरु में इस क्षेत्र में कई अभिनव तकनीकी समाधान आ रहे हैं। वहीं तिरुपुर में कपड़ा अपशिष्ट प्रबंधन के लिए जल उपचार और नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग किया जा रहा है। हालांकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि ‘टेक्सटाइल कचरे’ की चुनौती जितनी गंभीर है उसके अनुसार इससे निपटने के प्रयास अभी नहीं हो रहे हैं, लेकिन जो कुछ भी किए जा रहे हैं वे अन्यों के लिए प्रेरणादायक हो सकते हैं। कंपनियों, संगठनों के साथ-साथ आम लोगों को भी जागरूक होकर इस दिशा में काम करने की जरूरत है।