Eksandeshlive Desk
रांची : डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय में संताली विभाग की ओर से आयोजित संताली भाषा के लिपि ‘ओल चिकी’ के निर्माण हुए 100 वर्ष पूरा होने के अवसर पर होने वाले एक दिवसीय सम्मेलन में बतौर मुख्य अतिथि के रूप में कुलपति तपन कुमार शांडिल्य बोल रहे थे कि संताली भाषा को राष्ट्रीय, अंतराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने एवं स्थापित करने में पंडित रघुनाथ मुर्मू का अद्वितीय योगदान रहा है। ओल चिकी लिपि के माध्यम से ही संताली जैसी आदिवासी भाषा को सरकारी तंत्र पर स्थापित हो पाया।
कार्यक्रम की शुरुआत संताली समाज के परंपरा के अनुसार छात्र-छात्राओं द्वारा मंच में उपस्थित सभी अतिथियों एवं सभागर में बैठे सबों को ‘लोटा-पानी’ देकर सह डोबोक् जहार प्रणाम कर किया गया। इसके उपरांत सभी मंचासिन अतिथियों को संताली अंग वस्त्र एवं बेच देकर किया गया। इसके बाद मूल कार्यक्रम की शुरुआत ओलचिकी के प्रणेता पंडित रघुनाथ मुर्मू के छायाचित्र पर पुष्पार्पण एवं दीप प्रज्वलन कर किया गया। फिर संताली समाज के परंपरा अनुसार सभी कोई खड़े होकर संताली भाषा में प्रार्थना की गई। तत्पश्चात छात्र-छात्राओं द्वारा एक गीत प्रस्तुत करते हुए अतिथियों का स्वागत किया गया। कार्यक्रम में स्वागत भाषण के रूप में जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषाओं के कॉर्डिनेटर एवं खोरठा के विभागाध्यक्ष डॉ. बिनोद कुमार ने इस विश्वविद्यालय के बिते दिनों को स्मरण करते हुए कहा कि पूरे भारत में पहली बार इस विश्वविद्यालय में संताली भाषा के टेकनिकल शब्दावली पर दो – दो वर्कशॉप होने के बात को दोहराते हुए कहा कि ओलचिकी लिपि की अपनी गरिमा, मान-मर्यादा है, यह हमारे लिए गर्व की बात है कि हमारे विश्वविद्यालय में ओलचिकी के शताब्दी समारोह मनाया जा रहा है।
इस अवसर पर विशिष्ट अतिथि के रूप में उपस्थित हिंदी के विभागाध्यक्ष डॉ. जिंदर सिंह मुंडा ने ‘गोमके’ शब्द से उपाधि दो व्यक्तित्व पहला मरांग गोमके जयपाल सिंह मुंडा और दुसरा गुरू गोमके पंडित रघुनाथ मुर्मू बतलाते हुए कहा कि ओलचिकी एक सांस्कृतिक लिपि है, जिसमें संताली समाज, परंपरा, सभ्यता और संस्कृति की झलक देखने को मिलती है। समारोह के विषय प्रवेश कराते हुए संताली विभाग के सहायक प्राध्यापक डॉ. डुमनी माई मुर्मू ने ओलचिकी की इतिहास और पंडित रघुनाथ मुर्मू के जीवन पर चर्चा करते हुए कहा कि जिस प्रकार मां अपने बच्चों के लिए कभी गरीब नहीं होती, उसी प्रकार मातृभाषा भी कभी गरीब नहीं होती है। वह हम सबको विकट से विकट परिस्थिति में भी अपने पथ से विचलित नहीं होने देती है। एन.सी.सी. के कॉर्डिनेटर केप्टन (डॉ.) गनेश चंद्र बास्के ने कहा कि आज के विद्यार्थी को अपने आप में झाक कर देखने की आवश्यकता है, जब 100 वर्ष पूर्व पंडित रघुनाथ मुर्मू जैसी अभावों, असुविधाओं से घिरे रहने के बावजूद इनके अंदर अपनी मातृभाषा के लिए ओलचिकी निर्माण करना और समाज, साहित्य, शिक्षा जगत में स्थापित हो सकता है तो आप जैसे आधुनिक सुख सुविधा से लैस होनहार विद्यार्थी कहां तक सोंच सकते है। यह सोचने वाली बात है।
विशिष्ट अतिथि के रूप में संताली विभाग रांची विश्वविद्यालय से आये डॉ. शकुंतला बेसरा ने अपना उद्घोषणा संताली में बतलाया और एक गीत के माध्यम से ओलचिकी का निर्माण पंडित रघुनाथ मुर्मू ने किस तरह संघर्ष किया, उसका ऐतिहासिक पक्ष को सुरीली अंदाज में प्रस्तुत कर किया। कार्यक्रम में मंच संचालन हो भाषा के सहायक प्राध्यापक डॉ. जय किशोर मंगल ने करते हुए ओलचिकी से संबंधित एक कविता पाठ किये। धन्यवाद ज्ञापन संताली विभाग के सहायक प्राध्यापक डॉ. डुमनी माई मुर्मू ने किया। कार्यक्रम के बीच में बाबुलाल मुर्मू, बिनय टुडू, उषा किरण हांसदा, अनिल सोरेन आदि ने संताली गीत गाया एवं अंत में सामुहिक नृत्य-गीत प्रस्तुत किया। इस अवसर पर विश्वविद्यालय के दर्शनशास्त्र विभाग के डॉ. आभा झा, भौतिक के डॉ. जे. पी. शर्मा, कुड़मालि के पूर्व विभागाध्यक्ष डॉ. परमेश्वरी प्रसाद महतो, संताली के संतोष मुर्मू, कुड़मालि के डॉ. निताई चंद्र महतो, नागपुरी के डॉ. मनोज कच्छप, डॉ. मालति बागिशा लकड़ा, कुंड़ुख के सुनिता कुमारी, खड़िया के शांति केरकेट्टा, मुंडारी के डॉ. शांति नाग, खोरठा के सुशिला कुमारी, शोधार्थी सलमा टुडू आदि सभी शोधार्थी एवं संताली सहित कई विभाग के सैकड़ों छात्र-छात्राएं उपस्थित थे।
बताते चलें कि ‘ओलचिकी’ संताली भाषा की एक वैज्ञानिक लिपि है। इसका निर्माण आज से 100 वर्ष पूर्व ब्रिटिश भारत में 1925 ई. को किया गया। इसके प्रणेता पंडित रघुनाथ मुर्मू थे। पंडित मुर्मू वर्तमान भारतवर्ष के ओडिशा राज्य के म्यूरभंज जिला के रायरंगपुर के नजदीक डाहारडीह गांव में वैशाख पूर्णिमा के दिन 5 मई 1905 ई. को हुआ था। इसके पिता नंदलाल और माता सलमा मुर्मू थे। वे बचपन से ही अपनी मातृभाषा संताली में अध्ययन के लिए इच्छुक थे परंतु स्कूल में उन्हें उड़िया भाषा में पठन-पाठन करना पड़ता था जो उसके लिए काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा। इस कठिनाई से प्रेरित होकर उन्होंने बचपन से ही नई लिपि में अपने समाज को शिक्षित करने को ठाना। इस चुनौति ने ओलचिकी लिपि निर्माण का कार्य गांव-घर, नदी में स्थित मिट्टी, बालु में चित्रात्मक ढंग से गढ़ने का प्रयास लगातर करने लगा। वे प्रिंट के लिए अपने हाथों से लकड़ी में इस लिपि का ढांचा बनाया। अंततः 1925 आते आते एक संपूर्ण लिपि का निर्माण कर दिया जिसे आज हम ‘ओलचिकी’ लिपि के नाम से जानते हैं।