आदिवासी और ग्रामीण समुदायों की समस्याओं को समझे बिना उनका उचित समाधान संभव नहीं है: डॉ. बिमल प्रसाद सिंह
Eksandeshlive Desk
रांची: मध्य-पूर्वी भारत में लैंगिकता एवं सीमान्तीकरण: झारखण्ड, छत्तीसगढ़ एवं बिहार के अनुभव’ विषयक द्विदिवसीय मध्य-पूर्वी क्षेत्रीय सम्मेलन का समापन शनिवार को डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय, रांची के सभागार में संपन्न हुआ। इस सम्मेलन का आयोजन डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय, रांची, भारतीय महिला अध्ययन संघ (आईएडब्ल्यूएस) और गुरु नानक कालेज, धनबाद के संयुक्त तत्वावधान में हुआ। सम्मेलन में देश-विदेश से शोधार्थी, विद्वान, शिक्षाविद एवं समाजसेवी सम्मिलित हुए।
समापन समारोह की अध्यक्षता करते हुए प्रो. (डॉ.) तपन कुमार शांडिल्य, कुलपति, डीएसपीएमयू ने कहा कि औद्योगिकीकरण और शहरीकरण ने विकास को नई दिशा दी है, परंतु इसके कारण विस्थापन और हाशियाकरण की समस्याएं भी उभरकर आई हैं। उन्होंने कहा कि विकास का ऐसा मॉडल जो स्थानीय समुदायों को विस्थापित करे स्थायी नहीं हो सकता। हमें इस पक्ष पर विचार करते हुए ऐसी नीतियों पर जोर देना होगा जो सर्वांगीण और समावेशी विकास पर बल दे। उन्होंने कहा कि विकास की प्रक्रिया में स्थानीय समुदायों की संस्कृति और पर्यावरण का संरक्षण अनिवार्य है। उन्होंने आगे कहा कि आदिवासी समुदाय केवल विस्थापन का दंश नहीं झेलते, बल्कि उनकी सांस्कृतिक जड़ों पर भी गहरा आघात होता है। लैंगिक और जनजातीय असमानताओं को दूर करने के लिए एक समग्र दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है जिसमें उनकी पारंपरिक भूमिका और आधुनिक जरूरतों का संतुलन हो।
मुख्य अतिथि डॉ. बिमल प्रसाद सिंह, कुलपति, सिदो कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय ने कहा कि आदिवासी और ग्रामीण समुदायों की समस्याओं को समझे बिना उनका उचित समाधान संभव नहीं है। उन्होंने कहा कि विस्थापन या प्रवासन का बालकों के विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। उनके स्वास्थ्य पर समुचित ध्यान नहीं दिए जाने से अनेक सामाजिक और आर्थिक समस्यायें उत्पन्न होती है।उन्होंने कहा कि हाशिये पर स्थित समुदायों के प्रति प्रणालीगत हिंसा और भेदभाव को समाप्त करने के लिए प्रशासनिक और सामाजिक स्तर पर जागरूकता अभियान चलाए जाने चाहिए। विशिष्ट अतिथि डॉ. विभा पाण्डेय, उपनिदेशक, उच्च एवं तकनीकी शिक्षा विभाग, झारखंड सरकार ने स्वास्थ्य और शिक्षा में असमानताओं पर चर्चा की। उन्होंने कहा कि स्वास्थ्य सेवाओं और शिक्षा में क्षेत्रीय और लैंगिक असमानताएं हाशिये पर स्थित समुदायों के विकास को बाधित करती हैं। डॉ. पाण्डेय ने विस्थापन के प्रभावों का उल्लेख करते हुए कहा कि प्रवासी परिवारों के बच्चों में स्कूल छोड़ने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। उन्होंने सुझाव दिया कि प्रवासियों के लिए पोर्टेबल शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं का प्रावधान किया जाना चाहिए। महिलाओं और जनजातीय समुदायों के प्रति हिंसा की चर्चा करते हुए डॉ. विभा पाण्डेयन ने कहा कि इन्हें केवल कानूनी उपायों से नहीं, बल्कि सामाजिक मानसिकता बदलकर समाप्त किया जा सकता है।
डॉ. नमिता सिंह, कुलसचिव, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय ने अपने सम्मेलन के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि यह आयोजन लैंगिक असमानता और सीमान्तीकरण जैसी समस्याओं के समाधान की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। उन्होंने कहा कि औद्योगिकीकरण और शहरीकरण के वर्तमान परिदृश्य में हाशिये पर स्थित समुदायों के अधिकारों और उनके जीवन स्तर में सुधार लाना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। डॉ. सिंह ने स्थानीय समुदायों की संस्कृति और पर्यावरण के संरक्षण की आवश्यकता पर जोर देते हुए कहा कि विकास के लिए ऐसी नीतियां अपनानी होंगी जो समावेशी और सतत हों। उन्होंने शोधकर्ताओं, शिक्षाविदों और विशेषज्ञों का आह्वान किया कि वे अपने ज्ञान और शोध के माध्यम से इन जटिल मुद्दों का समाधान सुझाने में योगदान दें। उन्होंने सम्मेलन के आयोजन में शामिल सभी संस्थानों और प्रतिभागियों को धन्यवाद दिया और इसे ज्ञान-विस्तार का एक उत्कृष्ट मंच बताया।
इस अवसर पर आईएडब्ल्यूएस की अध्यक्ष डॉ. कल्पना करूणाकरण ने लैंगिकता और जनजातीयता के अंतर्संबंधों पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि लैंगिक और जनजातीय पहचान को समझने और उन्हें सशक्त बनाने के लिए समग्र दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है। स्वास्थ्य और शिक्षा में असमानता पर चर्चा करते हुए डॉ. कल्पना करूणाकरण ने कहा कि स्वास्थ्य सेवाओं और शिक्षा तक पहुंच में असमानताएं न केवल लैंगिक आधार पर हैं, बल्कि क्षेत्रीय और आर्थिक भेदभाव के कारण भी हैं। उन्होंने बताया कि इन असमानताओं को दूर करने के लिए सरकार और समाज दोनों को सक्रिय भूमिका निभानी होगी।
आईएडब्ल्यूएस की महासचिव डॉ. माया जॉन ने सम्मेलन में प्रस्तुत शोध पत्रों की गुणवत्ता और उनके विषयगत योगदान की सराहना की। उन्होंने कहा कि शोध कार्य समाज में व्याप्त समस्याओं को उजागर करने और उनके समाधान के उपाय सुझाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। डॉ. जॉन ने कहा कि विस्थापन बच्चों के जीवन को कठिन बना देता है। शहरों में प्रवासी बच्चों को शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंचने में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। उनके अधिकारों की रक्षा के लिए सरकारों को ठोस नीतियां बनानी चाहिए। समारोह का मंच संचालन डॉ. शुचि संतोष बरवार ने किया। धन्यवाद ज्ञापन सम्मेलन की क्षेत्रीय समन्वयक शमा सोनाली ने किया। यह सम्मेलन मध्य-पूर्वी भारत के झारखण्ड, छत्तीसगढ़ और बिहार जैसे राज्यों में व्याप्त लैंगिक असमानताओं और सीमान्तीकरण की समस्याओं को उजागर करने का एक महत्वपूर्ण प्रयास था। इसने समाज में हाशिये पर स्थित समुदायों की समस्याओं को समझने और उनके समाधान के लिए प्रभावी रणनीतियां विकसित करने में योगदान दिया। सम्मेलन में 50 से अधिक शोध पत्रों का वाचन हुआ, जो विभिन्न विषयों पर केंद्रित थे। इन शोध पत्रों ने न केवल अकादमिक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया, बल्कि समस्याओं के व्यावहारिक समाधान भी सुझाए।