Eksandeshlive Desk
रांची : झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री और झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) के संस्थापक शिबू सोरेन का सोमवार को निधन हो गया। उन्हें ‘दिशोम गुरु’ की उपाधि मिली थी। लेकिन क्या आपको पता है कि इसका मतलब क्या होता है और उन्हें यह उपाधि किसने और क्यों दी थी? दरअसल, ‘दिशोम गुरु’ एक संथाली शब्द है, जो आदिवासी समुदाय की भाषा से लिया गया है। संथाली में ‘दिशोम’ का अर्थ होता है ‘देश या समुदाय’ और ‘गुरु’ का अर्थ है ‘मार्गदर्शक’। इस तरह ‘दिशोम गुरु’ का मतलब है ‘देश का मार्गदर्शक’ या ‘समुदाय का नेता’। यह उपाधि उस व्यक्ति को दी जाती है जो समाज को दिशा दे, उनके हितों की रक्षा करे और उनके लिए संघर्ष करे। शिबू सोरेन को यह उपाधि उनके आदिवासी समुदाय के प्रति समर्पण और नेतृत्व के सम्मान में दी गई थी।
आदिवासी एवं मूलवासियों की अस्मिता के प्रतीक बने रहेंगे : शिबू सोरेन को ‘दिशोम गुरु’ का दर्जा झारखंड के आम जनमानस ने उनके संघर्षों के चलते ही दिया था। झारखंड के प्रणेता माने जाने वाले झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) के संस्थापक शिबू सोरेन न केवल राजनेता, बल्कि झारखंड के आदिवासी मूलवासियों के आंदोलन की आत्मा थे। उन्हें ‘दिशोम गुरू’ उपाधि उनके संघर्ष, सेवा और नेतृत्व के कारण दिया गया। गुरुजी झारखंड की आने वाले कई पीढ़ियां और झारखंड के आदिवासी एवं मूलवासियों की अस्मिता के प्रतीक बने रहेंगे। यही कारण है कि झारखंडवासी शिबू सोरेन को ‘दिशोम गुरु’ के नाम से जानते और पुकारते थे। शिबू सोरेन न केवल आंदोलनकारी थे, बल्कि उन्होंने झारखंड मुक्ति मोर्चा की स्थापना कर आदिवासी आकांक्षाओं को संगठित किया, एक नया रूप दिया। उन्होंने आदिवासी युवाओं को शिक्षा, राजनीति और समाज सुधार की राह दिखाई। जनसभाओं के दौरान वह लोगों को समझाते और उनसे संवाद करते थे। इसलिए उन्हें झारखंडवासी गुरु यानी मार्गदर्शक मानते थे। इसी तरह से उन्हें ‘गुरूजी’ की संज्ञा मिली।
शिबू सोरेन ने एक नए आंदोलन की शुरुआत की : शिबू सोरेन ने अपने युवा अवस्था से ही आदिवासियों, मूलवासियों, किसानों और मजदूरों के अधिकारों के लिए संघर्ष शुरू कर दिया था। उन्होंने उस दौर में झारखंड के जमींदारों की ओर से जारी दमन, जमीन लूट, शोषण और दबंगई के खिलाफ आवाज़ उठाई। उन्होंने लोगों को जागरूक किया कि उनकी जमीन, जंगल और जल उनकी अस्मिता है और इसकी रक्षा उन्हें हर हाल में करनी होगी। 1970 का वह दशक था, जब दिकुओं (बाहरी भूमाफियाओं) द्वारा आदिवासियों की जमीन हड़पी जा रही थी। तब शिबू सोरेन ने एक नए आंदोलन की शुरुआत की। यह आंदोलन झारखंड की भूमि पर कब्जा करने वालों के खिलाफ था। उन्होंने गरीबों की जमीन वापस दिलाने का कार्य किया। सामाजिक रूप से आंदोलन को ऐसा मोड़ दिया कि संताल सहित पूरे झारखंडवासियों के बीच सकारात्मक संदेश गया। बताया जाता है कि तब शिबू सोरेन ने ठान लिया था कि उनके आंदोलन के कारण उन्हें जेल ही क्यों न जाना पड़े। लेकिन वे लोगों को जागरूक करने का आंदोलन और सामाजिक न्याय की मशाल को जलाना नहीं छोडेंगे। शिबू सोरेन ने झारखंड अलग राज्य की मांग को राष्ट्रव्यापी मुद्दा बनाया। यह न केवल एक भू-राजनीतिक लड़ाई थी, बल्कि झारखंड की पहचान, भाषा, संस्कृति और अधिकार की लड़ाई थी। यही वजह है कि आदिवासी समाज उन्हें अपना ध्वजवाहक मानने लगा।