प्रो० कुसुमलता मलिक
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाना स्त्री समाज के लिए कोई सुखद अनुभूति प्रदान करने वाला नहीं हो सकता। हाँ इतना अवश्य है कि यह कुछ बंद द्वारों को खोल सकता है और कुछ मस्तिष्क के बंद कमरों में वातायन का काम कर सकता है। विचारणीय बात यह है कि क्या हम महज यही चाहते हैं? दरअसल स्त्री प्रकृति, वास्तविक प्रकृति के अधिक निकट है और पुरुष प्रकृति, वास्तविक प्रकृति के विरुद्ध। जब मैं ऐसा कर रही हूं तब इसके गहन अनुभव जीवन जीने की सामाजिक प्रक्रिया में निहित है। हम इसे स्त्री-पुरुष के मध्य स्वभावगत अंतरों से समझ सकते हैं।
पुरुष अपनी प्रकृति में स्त्री की अपेक्षा अधिक आक्रामक है। यही कारण है कि समाज में बर्बर, डाकू, गुण्डा, बलात्कारी, हिंसक, असहिष्णु, उग्रवादी, आतंकवादी इत्यादि विध्वंसात्मक भूमिकाओं में पुरुष प्रवृत्ति परिणत हो जाती है। स्त्रियाँ पुरुषों की अपेक्षा कहीं अधिक श्रमशील, सहिष्णु, नम्र, शांत, अहिंसक दृष्टिगत होती हैं। स्त्रियाँ अपने से जितना कष्ट उठाती हैं उतनी शक्ति पुरुष में कभी नहीं हो सकती। एक गर्भाधान, गर्भ संरक्षण व जन्म देने पर शरीर की बहुत अधिक शक्ति का व्यय होता है। तब भी स्त्रियाँ पुरुषों की अपेक्षा प्रायः कम बीमार पड़ती है। अक्सर जो बिमारियाँ स्त्रियों की होती हैं वे सब पुरुषों संसर्ग के कारण के कारण ही होती हैं। तथाकथित त्यागी, परोपकारी, कल्याणकारक स्त्री के ढांचे में एक तेजस्विनी, ओजस्वी स्त्री को जबरदस्ती फिट बैठाना पड़ता है। यही बात विवाहगत सांस्थानिक ढाँचे पर भी लागू होती है।
स्त्री जो होने को पैदा हुई है समाज उसे वह नहीं होने देना चाहता है और न ही होने देता है। इसे हम अपने समाज की पुरुष वर्चस्ववादी व्यावहारिक भावनाओं से समझ सकते हैं।