डेढ़ करोड़ मर गए, किंतु कोई शोर नहीं

360° Editorial Ek Sandesh Live States

क्रांति कुमार पाठक
रांची:
कैंसर का नाम सुनते ही लोग बेहोश हो जाते हैं पर सच्चाई यह है कि हर साल दुनिया में कैंसर के कारण लगभग 96 लाख लोगों की मौत हो जाती है। डब्ल्यूएच‌ओ के मुताबिक विश्व में मौत का दूसरा सबसे बड़ा कारण कैंसर से होने वाली मौतें ही हैं। कैंसर आज के युग के लिए सबसे घातक बीमारी है और इसे हराना आज भी चुनौती है। अविश्वसनीय वैज्ञानिक उपलब्धियों के बावजूद आज भी हम कैंसर का फुलप्रूफ इलाज ढूंढ नहीं पाए हैं। दुर्भाग्य से भारत में भी कैंसर महामारी का रूप धारण करता जा रहा है। पिछले कुछ सालों से भारत में कैंसर मरीजों की संख्या जिस तेजी से बढ़ी है, वह बेहद ही चिंताजनक है।

भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर साल कैंसर के कम से कम 1,90,000 मामले सामने आ रहे हैं।इन मामलों का गहन अध्ययन करने पर और भी चौंकाने वाली जानकारी उभर कर सामने आई है। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद के राष्ट्रीय कैंसर रजिस्ट्री कार्यक्रम के तहत देश में 2012 से 2019 तक कैंसर के कुल 13,32,307 मामले दर्ज किए गए। इस शताब्दी यानी साल 2000 से 2022 के बीच भारत में कैंसर से डेढ़ करोड़ से भी अधिक लोगों की मौत हुई। इसके बावजूद कैंसर भारत में अधिसूचित बीमारियों की श्रेणी में शामिल नहीं है और न सरकार की ऐसी कोई योजना दिखाई देती है। सवाल यह कि जिन डेढ़ करोड़ लोगों ने कैंसर से अपनी जान गंवाई, वे कौन थे, उनकी उम्र कितनी थी, वे कहां निवास करते थे और किस आयु वर्ग के थे? 204 देशों में 29 तरह के कैंसर पर रिसर्च से पता चला कि पिछले 30 सालों में 50 वर्ष से कम उम्र के लोगों में कैंसर होने के मामले 79 फीसदी तक बढ़े हैं। यह दुनिया का हाल है, लेकिन भारत भी इससे अलग नहीं है। यहां भी 50 साल से कम उम्र के लोगों को कैंसर हो रहा है और इससे असमय मौतें हो रही हैं।
कम उम्र में कैंसर
चर्चा उस हालिया शोध की जो हमें डराती है, हमें आगाह करती है। ब्रिटिश मेडिकल जर्नल (ऑन्कॉलजी) में पिछले दिनों प्रकाशित एक पेपर के मुताबिक 30 सालों में न केवल 50 से कम उम्र के युवाओं में कैंसर के मामले 79 फीसदी बढ़े हैं बल्कि ऐसे मरीजों की मौत के मामलों में भी 28 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। इसके बावजूद हमारे देश में इस पर बड़ी चर्चा नहीं हो पा रही है। थोड़ा और स्पेसिफिक होकर भारत की बात करें, तो यहां कैंसर से होने वाली मौतें असामान्य हैं। अमेरिकन कैंसर सोसायटी के जर्नल ग्लोबल ऑन्कॉलजी में प्रकाशित आंकड़ों के मुताबिक, साल 2000 से 2019 के बीच भारत में कैंसर से 1 करोड़ 28 लाख से भी अधिक लोगों की मौत हुई। वहीं, भारत सरकार के नैशनल कैंसर रजिस्ट्री प्रोग्राम द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक, साल 2020 से 2022 के बीच भारत में कुल 23 लाख 67 हजार 990 लोगों की कैंसर से जान हुई। इसके बावजूद भारत सरकार के पास कैंसर को अधिसूचित बीमारी घोषित करने की अपनी ही संसदीय समिति की सिफारिशों वाली फाइल सितंबर 2022 से पेंडिंग पड़ी है। इस सबके बीच मौत के ये आंकड़े शोर कर रहे हैं कि अगर अभी नहीं चेते, तो आने वाला वक्त भयावह होने वाला है।
इसके लिए सबसे जरूरी है कैंसर की दवाइयों की कीमत पर नियंत्रण। चौथे स्टेज के कैंसर मरीजों की टारगेटेट थेरेपी और इम्यूनोथेरेपी की अधिकांश दवाएं लाखों की कीमत वाली हैं। किसी-किसी दवा की पूरे साल की कीमत एक करोड़ से भी अधिक है। भारत की प्रति व्यक्ति आय के मद्दनेजर क्या आम भारतीय इन दवाइयों को खरीद सकता है? सरकार को चाहिए कि देश के प्रमुख कैंसर अस्पतालों से डेटा कलेक्ट कराया जाए और देखा जाए कि अच्छी दवा उपलब्ध होने के बावजूद लोग उसे क्यों नहीं खरीद पा रहे। भारत की सिर्फ 10 फीसदी आबादी ने हेल्थ इंश्योरेंस ले रखा है। इनमें से भी अधिकतर का औसतन कवरेज सिर्फ 4 लाख रुपये है। आयुष्मान योजना 5 लाख रुपये का कवरेज देती है। लेकिन इसमें कैंसर की टारगेटेड थेरेपी और इम्यूनोथेरेपी की अधिकतर दवाएं शामिल नहीं हैं। क्या सरकार का फर्ज नहीं कि वह अखबारों में विज्ञापन देकर बताए कि कैंसर के इलाज की कौन-कौन सी दवा उनकी इस योजना के तहत मिल सकती है? तथ्य यह है कि टारगेटेड और इम्यूनोथेरेपी तो छोड़िए, कीमोथेरेपी की भी कुछ दवाओं की कवरेज आयुष्मान योजना के तहत नहीं है। सभी सरकारी अस्पतालों में कैंसर के विशेषज्ञ डॉक्टर तक नहीं हैं। देश की ज्यादातर आबादी कैंसर के इलाज के लिए अपना शहर छोड़कर बाहर के शहरों की यात्राएं करती है।
कैंसर की गंभीरता
नई दवाओं के इस्तेमाल के मामले में हम जी 20 देशों में नीचे से तीसरे यानी 18वें नंबर पर हैं। क्या हमें 2023 के स्वस्थ भारत की बात भी नहीं करनी चाहिए? मुझे उम्मीद है कि कैंसर भारत में अधिसूचित बीमारियों की लिस्ट में शामिल होगा और सरकार इसके हर मरीज के मुकम्मल इलाज के इंतजामात करेगी।