भारत के आठ राष्ट्रीय व 50 क्षेत्रीय पार्टियों में फिलहाल बहुत कम ऐसी पार्टियां हैं, जिन्होंने अपनी पार्टी की स्थापना के कुल 50 बरस पूरे किए. राजनीतिक विशेषज्ञ बताते हैं कि हर साल देशभर में 50 से अधिक राजनीतिक दल खत्म होते हैं, बनते हैं. कुछ को बड़ी मछलियां निगलती हैं, तो कुछ हालात व नेतृत्व की कमी की मार झेलते हैं.
बहरहाल, ये काबिले-गौर है कि उत्तर भारत या यूं कह ले कि देशभर में कुछेक ही ऐसी पार्टी हैं, जिन्होंने चढ़ते-उतरते, फिसलते-बढ़ते ही सही, अपने 50 साल का सफर तय किया है. ऐसी ही एक पार्टी है झारखंड मुक्ति मोर्चा. जिसने बीते वर्ष यानी साल 2022 में ही अपने स्थापना के 50 बरस पूरे कर लिए हैं.
इस बीच कभी बंगाल, ओडिशा, बिहार, असम तक में फैली यह पार्टी, आखिर अपने सबसे बेहतर प्रदर्शन (साल 2019 से विधानसभा चुनाव में जेएमएम को 30 सीट हासिल हुए. यह उसका अब तक का बेस्ट परफॉर्मेंस है) करने के साथ, यह बाकि राज्यों से सिमटती क्यों चली गई. सवाल ये भी है, तमाम राजनीतिक दांव-पेंच में उलझते-बचते यह पार्टी चली कैसे. क्या यह केवल आदिवासियों की पार्टी है या फिर केवल आदिवासी ही इसके सबसे मजबूत झंडाबरदार हैं.
जेएमएम के कामकाज का तरीका, संगठन चलाने का तरीका और इसके परिणाम परस्पर मेल नहीं खाते. जब आप बीजेपी, कांग्रेस जैसे राजनीतिक पार्टियों और संगठन-कार्यकर्ता, भविष्य की तैयारियों को लेकर उनके कार्यक्रम और कामकाज के तरीकों को देखते हैं, तो जेएमएम वहां बमुश्किल ही ठहरती नजर आती है.
इसे समझने के लिए बहुत पीछे जाने की जरूरत नहीं है. बीते साल यानी 4 फरवरी 2022 को जब धनबाद के न्यू टाउन हाल में झामुमो का 50वां स्थापना दिवस मनाया जा रहा था, तब उस कार्यक्रम में ना ही झामुमो के केंद्रीय अध्यक्ष शिबू सोरेन उपस्थित थे, और ना ही कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन. अखबारों में छपी रिपोर्ट के अनुसार पार्टी का 50वां स्थापना दिवस का कार्यक्रम जैसे-तैसे ही आयोजित हुआ.
साल 2015 से 19 के बीच जब हेमंत नेता प्रतिपक्ष की भूमिका में थे. तब उनके हितचिंतक एक पत्रकार ने उनसे कहा कि देखिये बीजेपी-कांग्रेस सब मीडिया को कैसे हैंडल करता है. आप भी रेग्यूलर प्रेस कॉन्फ्रेंस करिये. पत्रकारों के साथ भी बैठकी कीजिए. कार्यकर्ताओं का सम्मेलन बुलाइए. सोशल मीडिया पर खर्च अभी से करिये. लगभग आधे घंटे के इस सलाह सत्र के जवाब में हेमंत बस एक बार मुस्कुरा कर दे दिया. कहा कि, जैसे चलता है, चलने दीजिए. ठीक ही है.
लेकिन यहीं आपको चौंकना होगा. साल 2020 में दुमका में बीजेपी की प्रत्याशी लुईस मरांडी और जेएमएम के प्रत्याशी हेमंत के भाई बसंत सोरेन के बीच उप-चुनाव का मुकाबला हुआ. मतदान से तीन दिन पहले हेमंत सोरेन के पास जब रिपोर्ट गई, तो पार्टी कमजोर होती दिखी.
यहां एक दांव खेला गया. संतालियों के बीच यह संदेश भिजवाया गया कि दीकू पार्टी वाला लोग तुम्हारा आदेश नहीं मान रहा है. तुम्हारे आदेश पर हेमंत सोरेन सत्ता में गए हैं. सीएम बने हैं. अगर ये चुनाव हार गए तो तुम्हारे आदेश की अवहेलना होगी. यह संदेश डुगडुगी बजाकर फैलाई गई.
देखिये यह तब हो रहा है जब सोशल मीडिया पर बीजेपी-कांग्रेस जैसी पार्टियां अरबों रुपए खर्चती हैं. असर ये हुआ कि ऐन वक्त पर ही सही, लगभग 6000 वोट से बसंत सोरेन चुनाव जीत कर विधानसभा पहुंच गए.
लोकसभा और विधानसभा चुनाव में जेएमएम
आइए, आपको जेएमएम की अब तक की चुनावी यात्रा और उसके फलाफल की तरफ ले चलते हैं. आपालकाल के बाद 1977 में बिहार विधानसभा चुनाव होने थे. झामुमो गठन के बाद नेताओं व कार्यकर्ताओं का यह पहला विधानसभा चुनाव था, जब पार्टी कार्यकर्ता चुनावी मैदान में थे. हालांकि उस दौरान चुनाव आयोग में झामुमो का निबंधन नहीं हुआ था, इसलिए प्रत्याशियों को निर्दलीय ही चुनाव में उतरना पड़ा.
सन 1977 के बिहार विधानसभा चुनाव में शिबू सोरेन भी टुंडी विधानसभा से निर्दलीय प्रत्याशी थे. पर टुंडी से ही झामुमो के एक और नेता शक्ति नाथ महतो भी निर्दलीय चुनाव में उतर गए, जिससे शिबू सोरेन को हार का सामना करना पड़ा था. शायद यही वजह थी कि गठन के ठीक बाद ही शिबू सोरेन और विनोद बिहारी महतो के बीच दूरियां बढ़ने लगी. वजह बना टुंडी विधानसभा सीट से झामुमो के दो निर्दलीय प्रत्याशियों का एक साथ उतरना.
ठीक 4 साल बाद यानी 1980 में ही बिहार विधानसभा चुनाव होने थे. पार्टी ने इसबार भी दांव आजमाया. हालांकि भारतीय चुनाव आयोग के मुताबिक सन् 1980 के विधानसभा चुनाव में भी पार्टी का निबंधन नहीं हुआ था. इस चुनाव में पार्टी ने 31 सीटों पर चुनाव लड़ा और उसने 11 सीटों पर जीत हासिल की. साल 1985 के बिहार विधानसभा चुनाव में झामुमो ने 57 सीटों पर भाग्य आजमाया. हालांकि उसे मात्र 9 सीटों पर ही सफलता मिली.
साल 1990 के बिहार विधानसभा चुनाव में पार्टी ने 82 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ते हुए कुल 19 सीटों पर जीत हासिल की. वहीं 1995 में हुए बिहार विधानसभा चुनाव में पार्टी ने कुल 63 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे. यहां पार्टी मात्र 10 सीटें ही जीत सकी.
साल 2000 के बिहार विधानसभा चुनाव में झामुमो ने 85 सीटों पर प्रत्याशी उतारे. पर इस बार भी सफलता सिर्फ 12 सीटों पर ही मिली.
बिहार विधानसभा चुनाव के बाद 2 अगस्त 2000 को लोकसभा से झारखंड विधेयक पारित हो गया था. हालांकि साल 2000 के बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा के 32 विधायक चुनाव जीत कर विधानसभा पहुंचे थे, वहीं झामुमो ने चुनाव में मात्र 12 सीटों पर जीत हासिल की थी. तब झामुमो, भाजपा के नेतृत्व वाले राजग गठबंधन का हिस्सा था. झामुमो के अध्यक्ष शिबू सोरेन ने मुख्यमंत्री की दावेदारी पेश की, पर भाजपा ने बाबूलाल मरांडी को राज्य का पहला मुख्यमंत्री बनाया. और राजग के इसी राजनीतिक चाल की वजह से झामुमो के अध्यक्ष शिबू सोरेन राज्य के पहले मुख्यमंत्री बनने से चूक गए.
जेएमएमः सफर राज्य बनने के बाद का
15 नवंबर 2000 को अलग झारखंड राज्य बनने के बाद 2005 का चुनाव राज्य का पहला विधानसभा चुनाव था. झामुमो के अलावा कुल 12 पार्टियां चुनावी मैदान में थी. कुल 81 सीटों वाले विधानसभा चुनाव में झामुमो ने यूपीए से गठबंधन कर 49 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे. उस चुनाव में झामुमो मात्र 17 सीटों पर ही सिमट गई. हालांकि पार्टी को विधानसभा चुनाव में उस दौरान 24.04 प्रतिशत वोट मिले थे.
राज्य गठन के करीब सवा चार साल के इंतजार के बाद झामुमो से कोई नेता मुख्यमंत्री बनने जा रहा था.साल 2005 के विधानसभा चुनाव के बाद झामुमो के अध्यक्ष शिबू सोरेन 2 मार्च, 2005 को यूपीए के समर्थन से मुख्यमंत्री बने.
वर्ष 2005 के विधानसभा चुनाव में यूपीय को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था. सारा खेल निर्दलीय कर रहे थे. विधानसभा चुनाव के बाद 1 मार्च साल 2005 को अर्जुन मुंडा के नेतृत्व में राजग ने 41 विधायकों की सूची राज्यपाल सैयद सिब्ते को सौंपी, लेकिन राज्यपाल ने अर्जुन मुंडा को इंतजार करने को कहा. दूसरे ही दिन राज्यपाल ने शिबू सोरेन को मुख्यमंत्री की शपथ दिलाते हुए सोरेन को बहुमत साबित करने के लिए 21 मार्च तक समय दे दिया.
राज्यपाल के निर्णय का विरोध हुआ. राज्यपाल की शिकायत राष्ट्रपति तक भी पहुंची. फिर राजग इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंचा. उच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि 11 मार्च को ही सोरेन बहुमत साबित करें. हालांकि सोरेन बहुमत साबित नहीं कर सके और 10 दिनों में ही उनकी सरकार गिर गई.उन्हें 10 दिनों में ही मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा.
झारखंड के दूसरे विधानसभा चुनाव के बाद राज्य ने चार मुख्यमंत्रियों का कार्यकाल देखा. राजनीतिक अस्थिरता की वजह से मुख्यमंत्री लगातार बदल रहे थे. शिबू सोरेन की सरकार गिरने के बाद अर्जुन मुंडा और फिर मधु कोड़ा राज्य के मुख्यमंत्री बने. हालांकि इनकी भी सरकारे राजनीतिक घटनाक्रमों का शिकार होती गई. आखिर में फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी तक शिबू सोरेन पहुंचे. पर तमाड़ विधानसभा से चुनाव हार जाने के कारण उन्हें एक बार फिर मुख्यमंत्री पद गंवानी पड़ी.
2009 के विधानसभा चुनाव में झामुमो
साल 2009 के विधानसभा चुनाव में झामुमो ने 78 सीटों पर प्रत्याशी उतारे. पर पार्टी को जीत सिर्फ 18 सीटों पर ही मिल सकी. यही नहीं, झामुमो का वोट प्रतिशत 24.09 प्रतिशत से घटकर 15.79 प्रतिशत पर पहुंच गया. बावजूद इसके, सत्ता पार्टी के पास ही रही और शिबू सोरेन एक बार फिर सीएम की कुर्सी तक पहुंचे. साल 2009 के विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा, जदयू और आजसू के समर्थन से झामुमो अध्यक्ष शिबू सोरेन राज्य के तीसरी बार मुख्यमंत्री बने. भाजपा के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष रघुवर दास व आजसू प्रमुख सुदेश महतो राज्य के उपमुख्यमंत्री बनाए गए.
हालांकि तीसरी बार राज्य के मुख्यमंत्री बने सोरेन से राजग ने समर्थन वापस ले लिया.
2014 के विधानसभा चुनाव में झामुमो
2014 के लोकसभा व विधानसभा चुनाव में तत्कालीन प्रधानमंत्री उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की एक तरफा लहर थी. बड़ी-बड़ी जनाधार वाली पार्टियों के जमानत जब्त हो चुके थे. झामुमो ने 2014 के विधानसभा चुनाव में 78 प्रत्याशी उतारे. पर मोदी लहर में झामुमो को 19 सीटों पर ही सफलता मिल पाई. हालांकि इस चुनाव में झामुमो के वोट प्रतिशत में लगभग 5 फीसद की बढ़ोतरी हुई. पार्टी का वोट 15.79 प्रतिशत से बढ़कर अब 20.93 प्रतिशत पर पहुंच चुका था.
37 सीटों पर सफलता हासिल करने वाली भाजपा की प्रचंड जीत के बाद राज्य में पहली बार गैर आदिवासी मुख्यमंत्री रघुवर दास ने कुर्सी संभाली. झारखंड गठन के बाद यह पहली सरकार थी जिसने अपने पांच साल का कार्यकाल पूरा किया.
2019 के विधानसभा चुनाव में झामुमो
2019 का विधानसभा चुनाव कई मायनों में खास था. पांच साल प्रधानमंत्री का कार्यकाल पूरा कर चुके नरेंद्र मोदी की लहर देश में तब भी बरकरार थी. भारतीय चुनाव आयोग के मुताबिक 2019 के झारखंड विधानसभा चुनाव में कुल 88 पार्टियां चुनावी मैदान में थी.
झामुमो ने कांग्रेस और आरजेडी से साथ गठबंधन किया और बीजेपी के खिलाफ एकजुट हुई. चुनाव के नतीजों में झामुमो ने 43 सीटों पर चुनाव लड़कर 30 सीटों पर बाजी मार ली. इधर कांग्रेस के 16 व आरजेडी के 1 विधायक भी चुनाव जीतने में सफल रहे. 81 विधानसभा सीटों वाले राज्य में गठबंधन पार्टियों ने बहुमत का आंकड़ा पार कर लिया. 47 सीटें जीतकर गठबंधन सरकार के समर्थन से राज्य के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन बने.
साल 2024 तक अगर हेमंत सोरेन तमाम राजनीतिक अस्थिरताओं के बीच भी अपनी सरकार बचाए रखते हैं तो 50 साल के झामुमो पार्टी के इतिहास में ये ऐसा पहली बार होगा कि झामुमो का कोई नेता मुख्यमंत्री के 5 साल का कार्यकाल पूरा कर पाए.
हेमंत सोरेन को आदिवासियों पर कितना भरोसा
हेमंत सोरेन के बीते चार सालों के कार्यकाल में अगर राज्य भर में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के बाद किसी अन्य व्यक्ति की चर्चा रही तो वे मुख्यमंत्री के विधायक प्रतिनिधि पंकज मिश्रा रहे, जो गैर आदिवासी हैं. साहेबगंज में अवैध खनन व धन शोधन मामले में फिलहाल मिश्रा ईडी की गिरफ्त में है.
हेमंत सोरेन व शिबू सोरेन के अलावा सुप्रियो भट्टाचार्य पार्टी के अहम पद पर हैं. सुप्रियो भट्टाचार्य पर भरोसा जताते हुए पार्टी ने उन्हें पार्टी महासचिव जैसे अहम पद सौंपे हैं. हालांकि वे भी गैर आदिवासी हैं. इसके अलावा भी पार्टी के कई महत्वपूर्ण पदों पर भी गैर आदिवासियों को तरजीह दी गई है.
मुख्यमंत्री के करीबी माने जाने वाले अभिषेक कुमार पिंटू को मुख्यमंत्री का प्रेस सलाहकार नियुक्त किया गया. ऐसे गैर आदिवासियों को पार्टी के प्रमुख स्थानों पर नियुक्त किए जाने के कइयों उदाहरण हैं.
ऐसे में सवाल ये है कि, क्या हेंमत सोरेन आदिवासियों के इतर गैर आदिवासियों पर ज्यादा यकीन करते हैं?
इस सवाल पर झामुमो प्रवक्ता मनोज पांडे मुख्यमंत्री के विधायक प्रतिनिधि पंकज मिश्रा से अपनी बात शुरु करते हैं. वो कहते हैं, ‘’पंकज मिश्रा सांगठनिक रुप से क्या करते थे, हम इस पर नहीं जाएंगे. लेकिन मुख्यमंत्री के क्षेत्र में सांगठनिक रूप से वो व्यक्ति बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता था. चुनाव के दौरान उन इलाकों में मैनेजमेंट संभालने का काम वही करता था. इसलिए उसे वो स्थान मिला.’’
अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वे आगे कहते हैं, ‘’हमलोग भी ट्राइबल बेस से नहीं हैं. पर खुद पिछले 30 सालों से पार्टी का झंड़ा उठाते हैं. पर ये सच है कि पार्टी से ट्राइबल की भावना जुड़ी हुई है, लेकिन झामुमो के वृहद विस्तार की वजह से आज सभी लोग पार्टी को उम्मीद की निगाहों से देखते हैं. हेमंत सोरेन के हांथो मे पार्टी का कमान आने से उन्होंने इसका दायरा बढ़ा दिया है. इसलिए जो सांगठनिक रुप से मजबूत होंते हैं उन्हें जिम्मेदारी तो दी ही जाएगी ना.’’
परिवारवाद की जद में पार्टी ?
झामुमो की स्थापना के आज 50 साल बाद जब पार्टी अन्य दलों के समर्थन से 5 साल के मुख्यमंत्री कार्यकाल को पूरा करने जा रही तो पार्टी पर परिवारवाद के गंभीर आरोप भी लग रहे हैं. हालांकि यह आरोप कोई नया नहीं है.
रांची प्रभात खबर के पत्रकार व लेखक अनुज कुमार सिन्हा इसे अलग नजरिए से देखते हैं. झामुमो के परिवारवाद पर प्रतिक्रिया देते हुए वे कहते हैं,‘’क्षेत्रीय पार्टियां असल में इसी रूप से ही चलती हैं. अगर संस्थापकों के वारिस काम के लायक हैं, उनके अंदर नेतृत्व की क्षमता है तो कोई दिक्कत नहीं है. अगर वारिस के पास मेरिट है तो इतिहास रचा जा सकता है.
बीजू पटनायक के बेटे नवीन पटनायक का उदाहरण देते हुए वे आगे कहते है, ‘’अगर आपके पास नेतृत्व क्षमता है तो कतई मायने नहीं रखता कि आप किसके बेटे हैं. झामुमो मे संदर्भ में परिवारवाद को लेकर उनका मानना है कि हेमंत सोरेन ने अपने नेतृत्व में ही 2019 का विधानसभा चुनाव जीतकर यह साबित कर दिया है कि पार्टी आगे कैसे चलेगी.’’
आखिर क्या है झामुमो का अंतरद्वंध
झामुमो के अंतरद्वंद पर किए गए सवालों के जवाब में पार्टी महासचिव सुप्रियो भट्टचार्य कहते हैं, ‘’झामुमो का कोई अंतरद्वंद नहीं है. पार्टी राज्य हित में हमेशा निर्णय लेती रही है. हर शोषण के खिलाफ हम मैदान से लेकर सदन तक संघर्ष करते हैं.’’
पूरे आत्मविश्वास के साथ वे अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, ‘’हमारा कोई अंतरद्वंद नहीं है. पार्टी का व्यूज़ क्लीयर है, गोल क्लीयर है और इसलिए हमारे रास्ते भी बहुत क्लीयर हैं.’’
हालांकि झामुमो पर कई सालों से नजर रखने वाले पत्रकार अनुज सिन्हा पार्टी केअंतरद्वंध को जातीय समीकरण से जोड़कर देखते हैं.
उनका मानना है कि झामुमो के गठन में सबसे अधिक भूमिका निभाने वाली दो जातियो के बीच का द्वंद फिलहाल झारखंड मुक्ति मोर्चा का भी अंतरद्वंध बनता जा रहा है. आदिवासी व कुर्मी समाज को अब तक साधने वाली झामुमो के समक्ष कुर्मी जाति की एक मांग उसकी जनाधार को नुकसान और लाभ दोनों पहुंचा सकता है.
असल में झारखंड, बंगाल व ओड़िशा के कुड़मी पिछले कई वर्षों से कुड़मी जाति को आदिवासी सूची (अनुसूचित जनजाती) में शामिल करने की मांग कर रहें हैं. झामुमो ने पार्टी गठन के शुरुआती दौर में इन्हीं दो जातियों को साध कर अपनी राजनीतिक वजूद को कायम किया. पार्टी के पहले अध्यक्ष विनोद बिहारी महतो व दूसरे अध्यक्ष निर्मल महतो कुड़मी जाती से ही थे, जबकि आदिवासियों के कद्दावर नेता शिबू सोरेन पार्टी के महासचिव पद पर थे.
अनुज सिन्हा एक बार फिर कहते हैं, झामुमो के समक्ष कुड़मी जाति को अनुसूचित जनजाति में शामिल कराने की मांग का समर्थन पार्टी के लिए बड़ी चुनौती है. क्योंकि झामुमो के समर्थन मात्र से ही पार्टी से सालों से जुड़े आदिवासी नाराज हो सकते हैं. जबकि इधर कुड़मी समुदाय के मांगों को पार्टी द्वारा समर्थन नहीं दिए जाने से पार्टी के सबसे मजबूत वोट बैंक के छिटकने का नुकसान झामुमो को उठाना पड़ सकता है.
हालांकि झामुमो के केंद्रीय महासचिव सुप्रियो भट्टाचार्य की राय इससे बिलकुल अलग है. वे कहते हैं, ये समर्थन और विरोध का मामला नहीं हैं. यह पूरा मामला भारत सरकार के कंसिड्रेशन का है कि किसे ट्राइबल बनाए. वे कहते हैं कि पिछले पार्लियामेंट सेशन में शेड्यूल कास्ट को नोटिफाई कर ट्राइबल बनाया गया. इसलिए ये पूरा मामला ही केंद्र सरकार के अधीन है.
आने वाले वक्त में झामुमो की दिशा व दशा
मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के नेतृत्व में 2019 के झारखंड विधानसभा का चुनाव झामुमो ने लड़ा. पार्टी ने उम्मीद से कहीं ज्यादा सीटें जीती और राज्य में अन्य दलों के सहयोग से सरकार बनाने में सफल रही.
आने वाले साल यानी 2024 में लोकसभा व झारखंड विधानसभा के चुनाव भी होंने हैं. ऐसे में पार्टी के अंदर चुनाव को लेकर कई चुनौतियां हैं. भाजपा जैसी बड़ी मशिनरी का सामना करना पार्टी के लिए बड़ी चुनौती तो हैं ही, साथ ही पार्टी के वरिष्ट नेता व विधायक लोबिन हेंमब्रम भी किसी चुनौती से कम नहीं हैं.
वे लोग जो याद किए जाते हैं…
पार्टी के गठन से पहले शिबू सोरेन ने साल 1962 में संथाल नवयुवक संघ का गठन किया था. शुरुआती दौर में वे महाजनों के खिलाफ तब हजारीबाग व इसके इर्द-गिर्द आदिवासियों का साथ देने के लिए धान काटो अभियान को धारदार बना रहे थे.
इसके बाद ही शिबू सोरेन ने आदिवासी सुधार समिती और सोनोत संथाल समाज जैसे प्रभावी संगठनों का भी गठन किया, जिसका मूल उद्देश्य आदिवासी समाज में व्याप्त बुराईयों के खिलाफ खुल कर लड़ना था.
पार्टी के निर्माण से पहले शिबू सोरेन के सोनोत संथाल समाज संगठन का असर महाजनों पर दिखने लगा था. तब दक्षिण बिहार यानी वर्तमान झारखंड में आदिवासियों के बीच महाजनों का बोलबाला था. कर्ज के कुचक्र में फंसाकर महाजनों द्वारा आदिवासी जमीन हथिया ली जाती थी, जिसके खिलाफ ही शिबू सोरेन ने पूरे इलाके में महाजनों के खिलाफ आंदोलन छेड़ रखा था. महाजनों के घोर आतंक के खिलाफ शिबू सोरेन का आंदोलन अकारण ही नही था.
27 नवंबर 1957 को महाजनों ने ही शिबू सोरेन के पिता सोबरन सोरेन की हत्या कर दी थी. सोबरन सोरेन को महाजनों का विरोध करना भारी पड़ा. तब शिबू सोरेन की उम्र मात्र 14 वर्ष थी जब पिता की हत्या का बदला लेने के लिए शिबू सोरेन ने पढ़ाई छोड़ दी थी. पिता की हत्या ने सोरेन को महाजनों के खिलाफ आंदोलित होने को मजबूर कर दिया. इसके बाद शिबू सोरेन के सतत् संघर्ष ने उन्हें आदिवासियों के बीच बहुत जल्द ही आदिवासी नायक के तौर पर स्थापित कर दिया था. आदिवासी व झारखंड अलग राज्य के लिए किए गए उनके अथक प्रयास की वजह से लोग उन्हें प्रेम से आज गुरुजी या दिशोम गुरु कहकर पुकारना ज्यादा पसंद करते हैं.
इधर महाजनों के खिलाफ शिबू सोरेन का आंदोलन चरम पर था, वहीं दूसरी तरफ धनबाद-बोकारो के इलाकों में समाज सुधारक विनोद बिहारी महतो भी शिवाजी समाज संगठन के जरीए कुर्मी समाज में व्याप्त बुराईयों को दूर करने व शिक्षा का प्रचार करने का काम कर रहे थे. उन्हीं दिनों बोकारो स्टील प्लांट को लेकर जमीन अधिग्रहण का काम चल रह था. विनोद बिहारी महतो अधिवक्ता भी थे. वे जमीन अधिग्रहण में रैयतों को उचित मुआवजा दिलाने का काम करते.बहुत जल्द ही वे कुर्मी जाती के बड़े नेताओं में गिने जाने लगे थे.
दरअसल, आंदोलन के दिनों में ही शिबू सोरेन और विनोद बिहारी महतो के बीच मुलाकात हुई थी. प्रभात खबर रांची के पूर्व संपादक अनुज सिन्हा ने अपनी किताब ‘दिशोम गुरु शिबू सोरेन’ नामक किताब में इस मुलाकात का दिलचस्प वर्णन किया है.
महाजनों के खिलाफ आंदोलन करने के दौरान शिबू सोरेन पर थाने में मुकदमे लगातार दर्ज हो रहे थे. इसी बीच धनबाद में वरीय अधिकारियों के पास शिबू सोरेन की शिकायत पहुंची थी. मामले की सुनवाई हो रही थी. संयोग से उस दौरान अधिवक्ता विनोद बिहारी महतो और उनके सहयोगी एस.के सहाय भी वहीं मौजूद थे. सुनवाई के दौरान अधिकारी ने शिबू सोरेन को धमकाते हुए कहा था कि मारपीट बंद करो, नहीं तो जेल में बंद कर दूंगा. इस पर प्रतिक्रिया देते हुए शिबू सोरन ने कहा कि जब तक महाजन शोषण बंद नहीं करेंगे, तब तक कार्रवाई जारी रहेगी.
दिलचस्प बात ये है कि विनोद बिहारी महतो वहीं खड़े चुपचाप सब कुछ सुन रहे थे. हालांकि दोनो नेताओं की मुलाकात पहले कभी नहीं हुई थी. उसी दौरान विनोद बिहारी महतो ने अपने साथी एस.के सहाय से कहा था कि इस आदिवासी युवक में बहुत दम है. नजर रखो. आदमी काम का लगता है. हालांकि उसी दिन विनोद बिहारी महतो आंदोलनकारी शिबू सोरेन के तेवर को देखते ही भांप चुके थे.
उस रोज दोनों की बात नहीं हुई. पर प्रकृति ने दोनो के लिए आगे के राजनीतिक जीवन का खांका पहले ही तैयार कर रखा था.
ऐसे ही झारखंड के एक और आंदोलनकारी थे कॉमरेड ए.के राय. पेशे से सिंदरी में इंजीनियर कॉमरेड ए.के राय शुरुआती दौर में बिहार कामगार यूनियन चलाते थे. हालांकि कॉमरेड ए.के राय और विनोद बिहारी महतो दोनों एक दूसरे को लंबे समय से जानते थे. दोनों साथ-साथ सीपीएम में थे. इंजीनियरिंग छोड़कर कॉमरेड ए.के राय धनबाद के इलाकों में अलग-अलग संगठनों के जरीए तब तक सक्रिय हो चुके थे.
धनबाद के आसपास के इलाकों में इन्हीं दिनो नक्सली संगठन सक्रिय होते रहे. इसी दौरान कामॉरेड ए.के राय का एक लेख फ्रांटियर में वोट एंड रिवोल्यूशन छपा था. लेख छपने के बाद कॉमरेड ए.के राय सीपीएम से निष्कासित कर दिए है. हालांकि सन् 1972 के चुनाव में कामॉरेड ए.के राय जनवादी संग्राम समिति के बैनर तले सिंगरी से विधायक बन चुके थे.
इधर अलग झारखंज राज्य के प्रबल समर्थक होने के कारण विनोद बिहारी महतो को भी सीपीएम छोड़ना पड़ा था. सीपीएम छोड़ने के बाद ही विनोद बिहारी महतो के दिमाग में अलग राजनीतिक दल बनाने को लेकर विचार चल रहे थे. अब तीन लोग जो अलग-अलग संगठनों के जरीए समाज सुधार और झारखंड अलग राज्य की मांग कर रहे थे, वे अंततः एक साथ हुए और नए राजनीतिक दल झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन संभव हुआ.
रिपोर्ट : आकाश आनंद, रांची