विश्व में देश का प्रतिनिधित्व करते शिक्षा, संस्कार और विज्ञान का ज्ञान

360° Editorial Ek Sandesh Live

Sanjiv Thakur

वैश्विक परिदृश्य में किसी भी देश की पहचान और उसका महत्व देश की शिक्षा प्रणाली की गुणवत्ता,संस्कारों में अंतर्निहित ज्ञान और देश की सांस्कृतिक विविधता से ही होती हैl इसके पश्चात प्राकृतिक संसाधनों का दोहन एवं विज्ञान, तकनीकी एवं व्यापारिक क्षमता से देश की स्थिति का आकलन होता है।

किसी भी राष्ट्र की आधारशिला उस राष्ट्र की संस्कृति,शिक्षा,संस्कार और ज्ञान की कसौटी ही होते है।शिक्षित नागरिक ही महान राष्ट्र का निर्माण करते हैं, और संस्कृति,संस्कार उसे समुर्द्ध देश बनाते हैं। राष्ट्र निर्माण में हर नागरिक का महत्वपूर्ण योगदान होता है। आज का नवजात शिशु कल का सफल नागरिक होता है, उसकी शिक्षा-दीक्षा और संस्कार से ही देश की सफलता निर्भर होती है। कक्षा की पिछली सीट पर बैठे किसी आइंस्टीन की तलाश के लिए पारखी की नजरों की आवश्यकता होती है। जिसे नकारा घोषित कर विद्यालय से निकाल दिया जाता है, वही बालक आगे चलकर युग परिवर्तनकारी “सापेक्षता का विशिष्ट सिद्धांत” दे जाता है. न्यूटन के गति के सिद्धांत हमारे जिंदगी को द्रुतगति से आगे की ओर अग्रसर करते हैं। यह ऐसे बालक जो जो आगे चलकर बनी बनाई परंपरा तथा लीक से हटकर चलते हैं, और परंपराओं पर गहरी चोट करते हैं। जो समाज से सुना, उसे सुनकर रह नहीं जाते हैं, और जो समाज में उसने देखा,सिर्फ देख कर नहीं रह जाते हैं, बल्कि देख सुनकर उस पर चिंतन मनन कर नई धारणा तथा सिद्धांतों को प्रतिपादित करते हैं और विश्व को उसकी सौगात भी देते हैं। हमें इन महान बालकों को गरीब बस्तियों से लेकर गली मोहल्ले और शहरों में खोजना चाहिए। बेंजामिन फ्रैंकलीन कि अपनी राय है कि बिना वैचारिक स्वतंत्रता के बुद्धि जैसी कोई चीज हो ही नहीं सकती है। हम वर्तमान में जिस समाज में हैं और जिस समाज से हमने सभ्यता का विकास की शुरुआत की है, उसका जब सूक्ष्म विश्लेषण करते हैं तो यही पाते हैं कि अपनी आजादी के तमाम तामझाम बनाने वाला इंसान दिन प्रतिदिन अपनी की बनाई दुनिया के बोझ तले गुलाम होता जा रहा है।

आज हमारी शिक्षा व्यवस्था ऐसी हो गई है, कि बचपना बस्ते के बोझ तले दबता चला जा रहा है। हमारी शिक्षा व्यवस्था को ऐसा होना चाहिए कि बच्चों को किताबी कीड़ा बनाने के बजाय उसकी नैसर्गिक रचनात्मक प्रतिभा को उभार कर जीवन उपयोगी बनाएं। बच्चों का मूल्यांकन सिर्फ इसी आधार पर नहीं होना चाहिए कि उसने कितने अंक प्राप्त किए हैं, बल्कि यह देखा जाना चाहिए कि उसकी रूचि किस क्षेत्र में ज्यादा है, और वह जीवन में इस क्षेत्र में आगे बढ़ कर एक सफल इंसान और समाज के लिए कितना उपयोगी हो सकता है,और वह खेल, साहित्य, संस्कृति, विज्ञान में कितना अपनी शक्ति और क्षमता के हिसाब से क्या प्रदर्शन कर सकता है। माता-पिता तथा अभिभावकों को भी इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि उसे जबरिया डॉक्टर,इंजीनियर, वैज्ञानिक या अधिकारी बनाने की बजाय उसकी रूचि हो को मद्देनजर रखकर उसका कैरियर चुनने की आजादी देने में मदद करनी चाहिए।

अधिकांश भारतीयों ने जो अनुसंधान या नई खोजें की हैं, वह सब विदेशों में जाकर ही वहीं की सुविधाएं प्राप्त कर,परिणाम दे सके हैं। भारत में गणित, विज्ञान तकनीकी संचार,इंजीनियरिंग, मीडिया रिसर्च की बहुत ज्यादा आवश्यकता है। यह अत्यंत विचार योग्य है कि हम अपने युवा देश के युवा साथियों को उत्कृष्ट मंच अनुसंधान अथवा साहित्य, संस्कृति,विज्ञान तथा अन्य क्षेत्रों में नहीं दे पा रहे हैं। प्रतिभा पलायन की दरों में वृद्धि को रोककर हमें अपने बच्चों को बाल्यकाल से उनकी विचारधारा तथा रूचि के अनुसार समस्त सुविधाएं प्रदान कर नई चीजों के लिए उन्हें प्रोत्साहित कर उन्हें साधन संपन्न बनाना चाहिए।

हमारी शिक्षा नीति हमारे अभिभावक, समाज और सरकार को चाहिए कि बचपन से सृजन क्षमता को आगे बढ़ाकर जिंदगी के बहुत से पाठ स्वयं सीख कर उनके उत्तर तलाशने में उन्हें सक्षम बनाएं। यह एक प्रकार का मनोविज्ञान भी है। यह मनोविज्ञान माता,पिता, भाई, बहन एवं बालक को समझ में आए ऐसा उनके बाल काल से ही व्यवहार के रूप में समझाना होगा, तब जाकर वह छोटा बालक एक विचार वान देश और समाज के उपयोगी नौजवान बन पाएगा। दार्शनिक रूसो ने भी कहा है कि “मनुष्य स्वतंत्र जन्म लेता परंतु सामाजिक बंधनों द्वारा जकड़ लिया जाता है” जरूरी है कि बालकों बालिकाओं के बाल काल से ही बंधनों से स्वतंत्र रखा जाए अतिवादीता तथा रूढ़िवादिता से परे उन्हें स्वतंत्र विचार करने की मौलिकता तथा क्षमता को विकसित होने की प्रक्रिया में अनुसरण करने का मौका दिया जाए। इससे हम जिस लोक में जी रहे हैं उस समाज को नए रूप में वक्त के साथ बदला जा सके। वैसे देखा जाए तो हम जिस पूंजीवादी बाजार वादी व्यवस्था में सांस ले रहे हैं, वहां हम एक निजी स्वार्थी व्यक्तित्व का निर्माण करने में व्यस्त हैं ।आज के युग में हर युवा आगे बढ़ने की ललक में वस्तुओं का सृजन करने की बजाय सब कुछ रेडीमेड लेने की व्यवस्था का अनुगामी बन गया है। इस तरह हमारे समाज की विचारधारा तथा बुद्धि भी रेडीमेड हो चुकी है। इस तरह हम अंकुरित होते पौधे को ज्यादा से ज्यादा खाद बीज डालकर एक खोखला तथा आधारहीन कमजोर वृक्ष बनाने का प्रयास कर रहे हैं। जो हमें दिशाहीन अंधेरे की तरफ ले जा रहा है,एवं हमारी समूची युवा अपनी की वैचारिकता को दीमक लगाने जैसा काम कर रही है। ग्रामीण क्षेत्र में बच्चों के विद्यालय में यह दृश्य आम दिखाई देता है कि बच्चे कलम दवात की बजाए थाली और कटोरी लेकर मिड डे मील के लिए आते हैं, निसंदेह यह गरीबी के कारण होता है, पर है तो दुर्भाग्य। मिड डे मील के कारण स्कूल में बच्चों की उपस्थिति दुगनी हो जाती है। किसी ने यह भी सच कहा है कि “विचारों का रास्ता पेट से होकर गुजरता है” गरीबी ने देश के होनहार बच्चों की वैचारिक क्षमता को कलम थाली और ग्लास में समेट कर रख दिया है।

स्वतंत्र विचारों को बचपन से प्रोत्साहित करने के उपायों में एक प्रमुख उपाय गरीबी दूर करना तो है ही, बाल श्रम को भी हतोत्साहित करने का प्रयास किया जाना चाहिए, जिससे बच्चा स्कूल से दूर होकर अपने पेट भरने तक सीमित रह जाता है। दूसरे क्रम में विचारधारा को विकसित करने के लिए अच्छे और विद्वान शिक्षकों की स्कूलों में नियुक्ति की जानी चाहिए। क्योंकि शिक्षक ही मां बाप के पश्चात बच्चों को मानसिक रूप से प्रभावित करने वाला एक आधार स्तंभ होता है। एक तरफ बाल मनोविज्ञान को समझकर बाल काल से ही बच्चों को वैचारिक क्षमता बढ़ाने की कोशिश की जानी चाहिए, ताकि हम देश को विद्वान, साहित्यकार,वैज्ञानिक अधिकारी,डॉक्टर और इंजीनियर दे सकें।