धर्म के नाम पर अपनी गतिविधियां चलाने वाले सभी संगठन असहिष्णु होते हैं, नफरत फैलाते हैं और हिंसा का सहारा लेते है. इस तरह के संगठनों में समानताएं भी होतीं हैं और अंतर भी.
एक मौके पर राहुल गांधी ने आरएसएस की तुलना मुस्लिम ब्रदरहुड से की थी. उन्होंने कहा था, “आरएसएस भारत के मिज़ाज को बदलने का प्रयास कर रहा है. देश में कोई ऐसा अन्य संगठन नहीं है जो भारत की सभी संस्थाओं पर कब्ज़ा करना चाहता है. मुस्लिम ब्रदरहुड भी अरब देशों में ठीक यही करना चाहता था. दोनों का लक्ष्य यही है कि उनकी सोच हर संस्था पर लागू होनी चाहिए और अन्य सभी विचारों को कुचल दिया जाना चाहिए. उन्होंने यह भी कहा कि, “मुस्लिम ब्रदरहुड पर अनवर सादात की हत्या के बाद प्रतिबंध लगा दिया गया था. उसी तरह, महात्मा गांधी की हत्या के बाद आरएसएस को प्रतिबंधित कर दिया गया था. सबसे दिलचस्प बात यह है कि दोनों ही संगठनों में महिलाओं के लिए कोई स्थान नहीं है.”
इन दोनों संगठनों का काम करने का तरीका बेशक अलग-अलग है लेकिन वे समान इसलिए हैं क्योंकि उनकी नींव उनके धर्मों की उनकी अपनी समझ पर रखी गई है, वे इस सोच को समाज पर लादना चाहते हैं और यही सोच उनकी राजनीति का आधार भी है. वे आज़ादी, बराबरी और भाईचारे के मूल्यों के खिलाफ हैं. और हां, दोनों समाज में परोपकार के काम भी करते है.
पिछले कुछ दशकों में समाज में धार्मिकता बढ़ी है और धर्म के नाम पर राजनीति भी. समाज में दकियानूसीपन बढ़ा है और आस्था पर आधारित सोच हावी हुई है. नतीजा यह है कि धर्मनिरपेक्ष पार्टियां भी सांप्रदायिक ताकतों द्वारा धर्म के उपयोग को नज़रअंदाज़ नहीं कर पा रहीं हैं. तालिबान महिलाओं को कुचल रहा है. परन्तु क्या महिलाओं को जीन्स पहनने से रोकना या उन्हें बुर्का पहनने पर मजबूर करना भी तालिबानी सोच का कुछ नरम संस्करण नहीं है?
नोट : अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया; लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं.