लोकसभा चुनाव से पहले बिखर जाएगा इंडिया गठबंधन का कुनबा

360° Editorial Ek Sandesh Live Politics

क्रांति कुमार पाठक
राँची:
अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में विपक्षी गठबंधन इंडिया अलायंस के सामने सिर्फ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से जूझना ही चुनौती नहीं है। उसे गठबंधन में शामिल दल भी ऐन वक्त धोखा दे दें तो कोई आश्चर्य नहीं। क्योंकि इंडिया अलायंस बनने के साथ ही उसमें दिखने लगी हैं दरारें। यही वजह है कि विपक्षी दलों के अगुवा बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भारी तनाव में हैं। इतना ही नहीं इस खेमेबंदी से बाहर भी कई दल ऐसे हैं, जो विपक्षी एकता के खेल को न केवल बिगाड़ने लगी हैं, बल्कि विपक्षी एकता के लिए बड़ी चुनौती भी बन रही हैं।
              वैसे तो लोकसभा चुनाव के मद्देनजर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन और इंडिया अलायंस अपनी-अपनी तैयारियां शुरू कर दी हैं। लेकिन इन दो खेमों के अलावा कुछ दल ऐसे भी हैं, जिन्हें किसी तरह की गोलबंदी की जरूरत महसूस नहीं हो रही। ऐसे दलों का भले कोई मोर्चा न हो, पर तीसरे मोर्चे के रूप में ये चुनावी अखाड़े में उतरेंगे।  इनमें ओडिशा में बीजू जनता दल, तेलंगाना में बीआर‌एस, बिहार में पप्पू यादव के नेतृत्व वाली जन अधिकार पार्टी व मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी, उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी और असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम जैसी पार्टियां राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन और इंडिया अलायंस के अलावा मैदान में होंगी। ये ऐसी पार्टियां हैं, जिनका वोट आधार अपने प्रभाव वाले राज्यों में बड़ा है। ये अंततः विपक्षी वोटों का बंटवारा ही करेंगी।
              हालांकि बिहार की राजनीति में जन अधिकार पार्टी और विकासशील इंसान पार्टी को कोई पूछ ही नहीं रहा है। इसके बावजूद बिहार के कुछ इलाकों में पप्पू यादव की पार्टी की पकड़ है। बावजूद उनकी किसी खेमे में पूछ नहीं हो रही। जबकि इसके लिए उन्होंने अपनी ओर से कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने इसके लिए इंडिया अलायंस के घटक राष्ट्रीय जनता दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव से भी मुलाकात की थी। लेकिन विपक्षी गठबंधन की तीन बैठकों में उन्हें नहीं बुलाया गया। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में तो उनके जाने का सवाल ही नहीं। जबकि मुकेश सहनी की पार्टी विकासशील इंसान पार्टी के बारे में माना जा रहा था कि वे राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का हिस्सा बनेंगे। इस सोच के पीछे की वजह यह थी कि उन्हें गृह मंत्रालय ने केंद्रीय सुरक्षा मुहैया कराई है। लेकिन मुकेश सहनी ने अपनी ताकत का इजहार करने के लिए निषाद आरक्षण की मांग कर दी। उन्होंने साफ कह दिया कि जो गठबंधन निषाद आरक्षण की मांग पूरी करने का वादा करेगा, वे उसी के साथ जाएंगे। आश्चर्य यह कि उनकी मांग किसी को मंजूर नहीं। नतीजतन वे अकेले निषाद आरक्षण यात्रा पर बिहार-यूपी के दौरे कर रहे हैं। हालांकि ऐसा लगता है कि अंततः मुकेश सहनी ‘इंडिया’ गठबंधन के साथ जा सकते हैं।
                 ओडिशा में सत्ता संभाल रहे बीजू जनता दल के मुखिया नवीन पटनायक तो शुरू से ही किनारे चलते रहे हैं। उन्हें किसी सहारे की जरूरत नहीं पड़ती। हालांकि केंद्र में भाजपा की सरकार के साथ उनकी गहरी छनती रही है। भाजपा ने भी उन्हें अपने पाले में करने की कभी न कोशिश की और न उनकी कमी उसे महसूस हुई। जब भी संसद में भाजपा को मदद की जरूरत पड़ी, बीजू जनता दल ने भाजपा का साथ दिया।
                इसी तरह तेलंगाना के मुख्यमंत्री केसी राव के नेतृत्व वाली बीआरएस ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन व इंडिया अलायंस दोनों खेमों से समान दूरी बना ली है। बल्कि यह कहा जाए कि उन्हें भी किसी ने नहीं पूछा। खासकर विपक्षी गठबंधन इंडिया अलायंस ने। यह अलग बात है कि संसद में बीआरएस के सदस्य विपक्ष के साथ समय-समय पर खड़े होते रहे हैं। इन सबसे इतर असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम है, जिसे किसी गठबंधन का साथ कबूल नहीं। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के साथ वे भले न रहें, लेकिन विपक्षी गठबंधन मानता है कि वे मुस्लिम वोटों का बंटवारा कर सत्ताधारी भाजपानीत गठबंधन की मदद करते हैं।
                विपक्ष का अंकगणित कहता है कि सिर्फ 45 फीसदी वोटों के सहारे राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन देश की सत्ता पर काबिज है। बाकी 55 फीसदी वोट विपक्षी दलों के हैं। अगर विपक्षी दल लामबंद हो गए तो नरेंद्र मोदी को सत्ता से हटाना मुश्किल नहीं होगा। मगर ऐसा सोचते समय विपक्षी गठबंधन यह भूल जाता है कि जो दल किसी खेमे में शामिल नहीं हैं, वे आखिरकार विपक्षी गठबंधन का ही तो खेल बिगाड़ेंगे। अगर दस प्रतिशत वोट भी इन दलों ने झटक लिए तो विपक्षी गठबंधन के 55 प्रतिशत वोटों के सपने पर पानी फिर जाएगा।
                फिर पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी को साधना विपक्षी गठबंधन के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। बंगाल कांग्रेस के अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी ने पहले ही कह दिया है कि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की लड़ाई तृणमूल कांग्रेस और भाजपा से होगी। सीपीएम भी इस मुद्दे पर फूंक-फूंक कर कदम रख रही है। सीपीएम के राज्य सचिव मोहम्मद सलीम ने भी कहा है कि उसका मुकाबला तृणमूल कांग्रेस से होगा। दरअसल, तृणमूल कांग्रेस बंगाल में सीपीएम और कांग्रेस को दो सीटें ही देना चाहती है। अभी कांग्रेस से अधीर रंजन चौधरी एकमात्र सांसद हैं। जबकि लोकसभा में सीपीएम का कोई सदस्य नहीं है। इसीलिए तृणमूल कांग्रेस दोनों को एक-एक सीट ही देना चाहती है। ममता बनर्जी पहले से ही कहती रही हैं कि विपक्षी गठबंधन तो बने, लेकिन टिकटों के बंटवारे के लिए राज्यों में प्रभावी बड़े दलों को ही जिम्मेवारी दी जाए। इसी तरह आम आदमी पार्टी भी सीटों के सवाल पर काफी मुखर है। एक तरफ विपक्षी गठबंधन की बैठकों में अरविंद केजरीवाल एका की बात करते हैं, लेकिन दिल्ली और पंजाब में वे अपनी मनमानी चाहते हैं। वे छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों की तैयारी में भी जुट गए हैं। वे टिकट भी बांटने लगे हैं। जाहिर है कि उनके ऐसे कदमों का दुष्परिणाम विपक्षी गठबंधन को ही झेलना पड़ेगा।